Thursday, December 24, 2020

Unpaused!

Amazon Prime पर जब मैंने Unpaused की पहली कहानी देखी, तो स्ट्रेस और बढ़ गया। पहली कहानी में Covid-30 आ चुका था और कुछ ठीक नहीं हुआ था। लोग सिर्फ work from home नहीं everything from home कर रहे थे।

मुझे लगा यही कहानी आगे बढ़ती रहेगी और Contagion की तरह अंत में सब ठीक हो जाता है वाले कॉन्सेप्ट को लेकर ये चू@#& इसमें 2-4 और लव स्टोरी घुसाकर 3000 साल तक सब ठीक होता हुआ दिखा ही देंगे।

लेकिन, आगे बढ़ी तो अगली कहानी शुरू हो चुकी थी। कहानी दो ऐसी औरतों की, जिनमें से एक ने ज़िन्दगी से बहुत कुछ सीखा था और एक अभी बस सीखने ही लगी थी। जीवन की ठोकरों से सीखा हुआ व्यक्ति ये समझता है कि ज़िंदगी में अहम से ज़्यादा ज़रूरी होता है रिश्ता। रिश्तों को कभी भी कितने भी बड़े अहम के लिए जाने नहीं देना चाहिए, ख़ास कर उन रिश्तों को जो आपकी कद्र करते हों।
सीख रहा व्यक्ति अक्सर कोई न कोई रिश्ता गवां कर ही इस बात को समझता है।
खैर इस वाली कहानी के मीम्स आपको मार्केट में भर भर के मिल जाएंगे।
एकाध हम भी जड़ देते है यहां!

तीसरी कहानी ठीक थी। पर बाकियों के आगे थोड़ी फीकी सी। मुद्दा तो सही था, पर ट्रीटमेंट उतना सही नहीं लगा। खैर, सब क्यों बताऊं? वैसे इस कहानी के बारे में बताने लायक ज़्यादा है नहीं! 

तो चलते हैं चौथी कहानी की ओर, जो इस सीरीज में मुझे दूसरी बेस्ट स्टोरी लगी। इसका अंत आपके रौंगटे खड़े कर देता है। क्योंकि आप जानते हैं कि आप भी इस वास्तविक अंत के दोषी हैं। कहानी एक मजदूर जोड़े की है, जो लॉक डाउन की वजह से बंबई में फंस गया है। अरे हां हां मुंबई है, पता है। पर मुंबई कहने से इसकी क्रूरता नहीं झलकती। बंबई से मानों स्वार्थ की बू आती है।

रहने का ठिकाना न होने पर ये जोड़ा अपने बेटे के साथ अपने साहब के घर रहने लगता है, जो विदेश में हैं। पैसे खत्म हो रहे हैं, राशन खत्म हो रहा है, काम मुश्किल से कभी मिलता है, कभी नहीं, घर जाने को कोई साधन नहीं। दूसरे मजदूर साथी पैदल निकल चुके हैं, पर इस उम्मीद से कि आज नहीं तो कल ट्रेनें चल पड़ेंगी, ये तीनों यहीं दिन गुजार रहे हैं। 
जीवन की तमाम निराशाओं के बीच इन दोनों के पास एक ही सुख है - जी नहीं चरम सुख नहीं - Tiktok!

पर एक दिन इसी tiktok पर बने वीडियो में दिख रहे घर को देख पकड़े जाते हैं और... 

उसी रात चल पड़ते हैं.. 

पैदल... 

....मुंबई से राजस्थान!

जिस साहब के घर में रह रहे थे, वो बड़ा सा मकान, खाली हो जाता है - बिलकुल फ्रेश!

आखिरी कहानी इस सीरीज की सबसे खूबसूरत कहानी है। किसी बच्चे सी मासूम कहानी। एक अविवाहित बुज़ुर्ग महिला और एक जवान, शादीशुदा, पर बंबई में अकेले रहने को मजबूर, ऑटो वाले की कहानी। पिछले कई महीनों से ओटीटी के सीरीज देख देख कर आपका दिमाग इस तरह प्रोग्राम तो हो ही चुका होगा कि आपको लग रहा होगा कि इन दोनों में प्यार हो जाता होगा। नहीं?
अजी हां आप सही सोच रहे हैं, दोनों में प्यार तो होता है, पर इंसानियत वाला प्यार, दोस्ती वाला प्यार!

हम रोज़ जीते हैं ऐसे प्यार को। प्यार, हमारी मां जैसी पड़ोस वाली आंटी के साथ। प्यार रोज़ घर पर काम करने आ रही मेड के साथ। प्यार अचानक रास्ते पर मिल जाने वाले अजनबियों के साथ। साफ सरल सीधा प्यार, जिसमें जिस्म का कोई रोल नहीं होता, सिर्फ मन का होता है। इस सीरीज ने उन्हीं प्यारे रिश्तों को परोसा है। कोई मिर्च मसाला नहीं, कोई ड्रामा नहीं और कोई 'सेक्स सीन' नहीं। आप अपने बच्चे के साथ आराम से बैठकर देख सकते हैं। उन्हें बता सकते हैं कि ऐसा होता है प्यार! 

मैं क्रेडिट्स नहीं देख पाई, क्योंकि पूरी सीरीज देखने के बाद मैं इसे देखने से मिले सुकून के नशे को खोना नहीं चाहती थी। 
पर आप सब, जिन्होंने भी इसे बनाया है, आपने ये साबित कर दिया कि सच्चाई और अच्छाई आज भी देखना पसंद करते हैं लोग। 

सलाम आप सबको! और थैंक यू! 2020 बुरा था ये कहते कहते हम इन छोटे छोटे प्यार भरे पलों को भुला ही चुके थे। इन्हें याद दिलाने के लिए थैंक यू!

Saturday, December 19, 2020

तुम्हारा लिखा हुआ

तुम्हारा लिखा हुआ पढ़ते पढ़ते कई बार अचानक लगता है, "अरे ये तो बिलकुल मेरे लिखे हुए जैसा है।"
मैं इसे तुमसे कहने की कल्पना करता हूं। पर ये सुनकर तुम कल्पना में भी मेरा मजाक उड़ाने वाली मुस्कान देकर ऑटोग्राफ देने लगते हो। पीछे से कुछ लड़कियां मुझे धकेल कर सरका देती हैं। और मैं कल्पना में भी तुमसे ये कहने की कल्पना करना छोड़ देता हूं।

हार

मैं एक हारा हुआ व्यक्ति हूं।

हारे हुए व्यक्ति को मंच पर नहीं बुलाया जाता।
उसे जीत का हार नहीं पहनाया जाता।
कितनी अजीब बात है न,
हार तो हार की होनी चाहिए।
फिर भी हार जीत के गले में होती है।

Thursday, December 17, 2020

छटपटाहट

अपने ही भीतर अपने आप को खो देने की छटपटाहट। 
इस ब्लैक होल से कभी न निकल पाने की घबराहट।
शून्य? क्या शून्य ही सत्य है?

Sunday, December 13, 2020

गुड्डू की मम्मी

क्या गुड्डू की मम्मी या मिसेज शर्मा की बजाय अपने नाम से पहली बार जाने जाने का रोमांच पुरुष कभी समझ पाएंगे?
अपनी पहली कमाई से अपने लिए एक लिपस्टिक खरीदने का सुख कभी मान पाएंगे?

उदासी

13 Dec 2020
आजकल मैं घंटों उदास रहती हूं। मैं जानती हूं उदासी के बारे में सोचना बंद कर दूं तो उदासी खत्म हो जाएगी। पर मैं उदासी के बारे में सोचना बंद नहीं करती। अपने दोस्त को बताती हूं कि मैं उदास हूं। वो मुझे दूसरों के ज़्यादा उदास होने के कारण गिनाने लगता है। मेरी उदासी को छोटा महसूस कराने लगता है। कहता है उदासी के बारे में सोचते बहुत हो। इसलिए उदास हो। उदासी के बारे में सोचना बंद कर दो। 
मैं उठकर चल देती हूं। और अपनी उदासी के बारे में सोचने लगती हूं। जो लोग मुझसे ज़्यादा उदास होंगे, क्या उनकी उदासी भी, उसके बारे में सोचना बंद कर देने से खत्म हो जाएगी?
क्या उदास व्यक्ति की सोच बंद की जा सकती है। क्या सोच के बंद होने से संसार उदासी मुक्त हो सकता है?

Saturday, December 12, 2020

इंसाफ

इंसाफ दिलाने से क्या मरा हुआ व्यक्ति वापस आ जाता है?
क्या लाशें बोलने लगती हैं?
फिर हम ज़िंदा लोगों को इंसाफ क्यों नहीं दिलाते?
बसों के टायर फटने का इंतजार क्यों करते हैं?
ऐक्सिडेंट के बाद उसे क्यों फूंकते हैं?
सब उजड़ जाने के बाद ही क्यों मुकदमा दर्ज होता है?
शोक के समाप्त हो जाने के बाद ही क्यों इंसाफ मिलता है?
क्या इंसाफ दिलाने से दोबारा कोई नहीं मरता?

Wednesday, November 18, 2020

नया साल

न लोग बदलते हैं,
न रास्ते,
न हादसे, मुसीबतें, जुर्म और 
न ही हालात
और हम समझते हैं 
कि साल बदलते ही 
वबा बदल जाएगी!
- मानबी

Sunday, November 15, 2020

नया साल

नया साल है।
चलो नई चीज़ गिफ्ट करते हैं।
किसीको साइकिल 
किसीको चॉकलेट
किसीको नई उम्मीद दिलाते हैं।

नया साल है
चलो नए कदम उठाते हैं
किसीको सांसे
किसीको सहारा
किसीको सुकून की नींद दिलाते हैं।

नया साल है
चलो नई रीत बनाते हैं
किसीको भक्त
किसीको लिबरल
किसीको पंडित
किसीको मुल्ला नहीं बुलाते हैं

नया साल है
चलो नया भारत बनाते है
बेहतर भारत बनाते हैं!

Saturday, November 7, 2020

धूमिल

धूमिल होता क्षितिज
जैसे धरती आकाश से मिलती ही न हो

दूर तलक दिशाहीन दृष्टि।

कभी गंतव्य तक 
न पहुंच पाने की थकान।

खालीपन से भरी हार की उपेक्षा करती
उत्सव में व्यस्त जीत।

उबटन लगातीं स्त्रियां।
अंतिम संस्कार की लकड़ियां।

भरे पेट की नींद
भूख की खुली आंखें

साड़ी, गहने, लाली, बिंदी
एक फटी चादर






 


Tuesday, November 3, 2020

अचानक

अचानक सब मिलने लगता है। मान्यता, पहचान...
समय, संज्ञान... उनके बीच अब तुम उन जैसा बोध करते हो। उन जैसा होने में और उनमें से एक होने में अंतर है ये भूलने ही लगते हो... और फिर... उनमें से एक तुम्हें ज्ञात कराए देता है तुम्हारा स्थान!
अचानक सब धुलने लगता है।

Friday, October 23, 2020

पार्थ

24 अक्टूबर 2020
पार्थ... तुम्हें गए हुए 13 दिन बीत चुके हैं। तुम्हारे अधूरे छोड़े हुए कुछ आर्टिकल्स अब भी ड्राफ्ट में हैं। उन्हें यूंही ड्राफ्ट में पड़े रहने देती हूं। लगता है अभी फोन करूंगी तो कहोगे "जी मानबी"। ड्राफ्ट में पड़े आर्टिकल्स की शिकायत करूंगी तो कहोगे, "आप परेशान न हों, मैं अभी ठीक कर देता हूं।"

वीकली मीटिंग्स से ठीक पहले तुमसे पॉडकास्ट के नंबर्स पूछने की आदत अभी छूटी नहीं है। और कभी कभार ये भी सोचने लगती हूं, कि श्रीधर से अगली वीडियो मीटिंग में डिस्कस करूं कि तुम्हारी तीन तगड़ी खबरों में क्या अलग किया जाए कि उसके व्यूज़ बढ़ें।
गाना को अभी मेल नहीं किया कि अब पॉडकास्ट नहीं होगा। पता नहीं क्यों!

शशि का कल आखिरी दिन था ऑफिस में। उसके बदले जो आ रही है, उसकी हिंदी अच्छी है। Hopefully उसकी कॉपीज़ को ज़्यादा एडिटिंग की जरूरत नहीं होगी। तुम होते तो कहती कि "लो, एक ही शिकायत थी तुम्हें यहां के काम से, वो भी दूर हो गई, अब बोलो"।
इस पर शायद तुम ठहाका लगाकर हंसते। 

मेरे जन्मदिन पर जो वीडियो तुमने बनाया था, वह न मालूम कैसे डिलीट हो गया। अर्चना, निशा सबके वीडियो मिल गए, बस एक तुम्हारा गायब है। बहुत गूगल किया कि वॉट्सएप से डिलीट हुआ वीडियो वापस कैसे मिलेगा। पर नहीं हो पाया। अब अगले जन्मदिन पर भी तो नहीं भेजोगे कोई वीडियो। कभी कभी हम कुछ यादों को कितनी सहजता से मिटा देते हैं। यह सोचकर कि फिर बन जाएंगे, यादें ही तो हैं। पर कुछ यादें, आखिरी यादें होती हैं, काश इस बात का बोध हमेशा रहता।

तुम्हारी मृत्यु की खबर मिलने के बाद तुम्हारे परिवार वालों से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई थी। तुम्हें पता है, निशा अहमदाबाद में मेरी टीम की पहली और अकेली एम्पलॉइ थी। उसके काम के साथ साथ उसके निजी जीवन के ठीक ठाक होने की भी ज़िम्मेदारी मुझे अपने आप पर लगती थी। बिना बताए ट्रैवल करती तो मुझे बहुत गुस्सा आता। एक बार अर्चना के साथ बिना बताएं माउंट आबू चली गई ऑफिस वाले दिन ही। उनके वापस आने पर मैंने उन्हें खूब डांटा, कि ऑफिशली तो तुम दोनों यहीं थीं। रास्ते में कुछ हो जाता तो मैं क्या जवाब देती।
तुम्हारे जाने के बाद मानों उसी ज़िम्मेदारी का एहसास हो आया। लगा, तुम्हारे घरवालों को क्या जवाब दूंगी? 
ऑफिस वाले दिन तुम गए ही क्यों? मैंने तुम्हें जाने कैसे दिया?
क्यों नहीं कहा कि नहीं ट्रैवल कर सकते अभी, बहुत काम है ऑफिस का।
जब अदिति ने तुम्हारे पितु से बात करवाई तो मैं सिर्फ लगातार "सॉरी अंकल सॉरी अंकल" कह पाई। सांतवना का एक भी शब्द याद नहीं रहा।

आजकल तुम्हारी बहन अदिति से लगभग रोज़ बात होती है। हम दोनों तुम्हारी बातें करते नहीं थकते। मेरे पास तो बस ड्राफ्ट में पड़े वो चंद आर्टिकल्स हैं। सोचती हूं तुम्हारे घर में कितना कुछ पड़ा होगा तुम्हारा...


Friday, October 16, 2020

सब सहज हो जाता है

सब सहज हो जाता है।
किसी के लिए घाट से आ जाने के तुरंत बाद,
किसी के लिए शाम तक,
और किसी के लिए हफ्ते भर में।
पर महीनों तक जो नहीं सोता, 
वर्षों तक जो गले में गांठ महसूस करता है,
युगों तक जो नहीं भुला पाता,
वह है पिता।
बाकी सबके लिए सब सहज हो जाता है!

Thursday, October 15, 2020

मां

बड़ी मिन्नतों के बाद उसके घर वो नन्हा फरिश्ता आया था
मोहल्ले में लड्डू बंटे, जगराता रखा गया और फिर शुरू हुआ एहतियातों का सफर
वो जहां जाती बच्चे को शॉल, चादर सबमें लपेटकर ले जाती।
थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे सिर्फ और सिर्फ देसी घी का पराठा खिलाती।
समय से खाना, वक़्त पर नहाना, खेलना कूदना और पढ़ाना
कभी अपनी आंखों से ओझल न होने दिया।
हर चीज में एहतियात, सतर्क रहकर बेटे को श्रेष्ठ बनाया।
अब बारी थी बेटे की
बूढ़ी मां को सतर्कता से संभालने की।
पर उसने अपनी बुद्धि से न जाने क्या क्या सामान बनाया
मां के घर में मशीनों का एक पूरा का पूरा संसार सजाया
धुंए से सांसे थम ही जाती तो अच्छा था,
पर अंत में बेटे ने ही उसके खाने में जहर मिलाया





Tuesday, October 13, 2020

मृत्यु

मां बाप मूर्ख होते हैं,
सत्य से अज्ञान
उन्हें नहीं होता गीता का ज्ञान,
मृत्यु-शैय्या पर पड़े 
अपने बेटे के शव से वे कहते हैं
"उठ जाओ.. कुछ तो कहो.. वापस आओ"

मां बाप मूर्ख होते हैं
वे नहीं सीखते भीष्म की कथा से कुछ भी।
गंगा की भांति नहीं बहा पाते अपने पुत्र को।
शांतनु की तरह हठी होते हैं वे।
उन्हें नहीं ज्ञात कि नश्वर है यह काया।
वे नहीं मानते आत्माओं के अमर होने की बात।
वे चीखते हैं, रोते हैं और अपनी मृत्यु तक 
शोक मनाते हैं तुम्हारे जाने का।

मां बाप मूर्ख होते हैं!
- मानबी

Monday, October 12, 2020

पार्थ

13 Oct 2020
12:00 noon
पार्थ के पितु का फोन - मानबी कोई फोन आया उसका? कहां गया वो? तुमने ज़्यादा काम तो नहीं न दे दिया उसे? कहां गया मेरा बेटा? रात भर ढूंढा उसको, नहीं मिला... "
और पार्थ की बहन अदिति ने उनसे फोन ले लिया।
क्या कर दिया ये पार्थ? वापस आजा यार

Saturday, October 10, 2020

पार्थ

10 Oct 2020
छोटे मोटे बस हादसे। केवल तीन की मौत। पांच घायल। अब तक ये छोटी मोटी खबर हुआ करती थी। न ये गूगल सर्च में टॉप पर आते हैं। न हम इन्हें पढ़ते हैं। पर आज समझ आया कोई भी हादसा छोटा नहीं होता। किसी की भी मृत्यु छोटी बात नहीं हो सकती। हमने पार्थ को एक ऐसे ही हादसे में खो दिया। खबरों में ढूंढा तो उसका नाम तक नहीं मिला। 45 में से 3.. उन तीन से एक पार्थ को ही क्यों होना था? वो बहुत कुछ करना चाहता था। काश करने देते तुम उसे कान्हा।

Tuesday, September 29, 2020

तो क्या?

30 सितंबर 2020
12:39 am
कुछ वक़्त पहले तक मैं लिखना चाहती थी। कहानियां लिखने का भूत अब सर से उतर चुका है। लिख भी दूंगी तो क्या? लोग तारीफ़ कर देंगे। जानने लगेंगे। साबित कर दूंगी कि मुझे बहुत कुछ आता है। तो क्या?
आजकल सब बेमानी लगता है। कुछ भी मिल जाए तो क्या? बस यही एक सवाल करती हूं। फिर सपने बेमानी लगते हैं। दौलत बेमानी लगती है। शोहरत बेमानी लगती है।
आज किसीने चिंकी सिन्हा की एक कहानी शेयर की। लंबी चौड़ी कहानी थी। सफर का पूरा ब्योरा और सार था। कुछ दसवीं बारहवी में लिखी मेरी डायरी की तरह। पता नहीं कहां है वो डायरी। चिंकी की लिखी हुई ये कहानी भी तो किसी दिन गुम हो जाएगी। और न भी हुई तो क्या? आज से सौ साल बाद चिंकी सिन्हा की कहानियां कोई पढ़ता भी रहे तो क्या। और मेरी कोई कहानी कोई न भी पढ़े तो क्या? 
हर काश की जगह अब तो क्या ने ले ली है।

Sunday, September 20, 2020

मरने के बाद

20 September 2020
7:30 AM
हम समझते हैं, मरने के बाद सब ठीक हो जाएगा। पर उस दुनिया में भी यहां जैसी ही एक दुनिया हुई तो? अगर वहां भी सब शुरू से शुरू करना पड़ा तो? या फिर यहीं से जहां से छोड़ जा रहे हैं।

Saturday, August 22, 2020

मशहूर

अब भी मुझे मार दे
मुझे कोई नहीं जानता अभी
मैं कल मशहूर हो जाऊंगा
तेरी पहुंच से दूर ही जाऊंगा

Wednesday, August 5, 2020

तरक्की

6 Aug 2020
ज़िंदगी में कितनी भी तरक्की कर लूं, सुबह का नाश्ता समय पर न बन पाए तो खुद को हारा हुआ ही पाती हूं।

Monday, July 27, 2020

कोरोना

28 जुलाई 2020

मार्च से शुरू हुई इस भयानक महामारी ने पूरे विश्व में अब तक 656000 जानें ले ली है, और भारत में 33000 के ऊपर। ये आंकड़े रोज़ थोड़े थोड़े बढ़ते हैं और साथ में बढ़ता है डर।
अभी अभी रवीश कुमार ने फेसबुक पर बिहार का एक वीडियो शेयर किया, जिसमें एक आदमी अस्पताल के सामने अपनी अधमरी बेटी को गोद में लिए चिल्ला रहा है ... कोई तो डॉक्टर को बुला दो.... पानी दे दो ... दूसरी बेटी ( जैसा प्रतीत हुआ ) लोगों से मदद मांग रही है। इतने में एक आदमी पानी की बोतल लिए आता है, पानी पिलाने लगता है और पीछे से आवाज़ आती है - ' दूर से दूर से '। 
इतने में एक सैनिक स्ट्रेचर लेकर आता है। पिता से बच्ची को उठाया नहीं जा रहा। वह मदद मांगता है। दृश्य यही खत्म हो जाता है। उसे किसीने छुआ या नहीं पता नहीं। उन्हें कोई डॉक्टर मिला या नहीं, पता नहीं। वो पिता अपनी बच्ची को बचा पाया या नहीं, पता नहीं!

एक और दृश्य में एक व्यक्ति सड़क पर पड़ा तड़प रहा है। पास ही में एक हवलदार और एक और व्यक्ति बातें कर रहे हैं, पर इस तड़पते व्यक्ति के लिए कुछ नहीं कर रहे। इस व्यक्ति का शायद पता है। शायद दम तोड़ चुका होगा। 33000 दरअसल सही आंकड़ा नहीं है। कुछ सौ और भी है इसमें। इन्हीं सौ में से एक ये भी बन गया होगा। महज एक आंकड़ा।

https://www.facebook.com/618840728314078/posts/1518070235057785/

उधर ट्विटर पर #JusticeForSushantSinghRajput अब भी ट्रेंड कर रहा है।
मैं सोच रही हूं आज दाल ढोकली बना लूं। रेसिपी देखनी है अभी!

Sunday, July 26, 2020

लिखना

मैं - पहाड़ों तक जानेवाले रास्तों पर मुझे उल्टियां होती है।

वो - और समंदर?

मैं - समंदर के पास ही रहती थी, पर कभी जाना नहीं हुआ। बस इसी ग्लानि में मैं अब समंदर के पास नहीं जा पाती।

वो - पर यह जीवन तो है। और यह संसार भी।

मैं - इनका क्या? ये तो बेकार पड़ी चीज़ें हैं।

वो - पहाड़ सा जीवन। और समंदर सा संसार। डूब रही हो। यहीं पर लिख लो। अच्छा लिखोगी।

रूटीन

हर रोज़ वही रूटीन ...नाश्ता, खाना, सफाई, ईमेल, एडिट, चिढ़ना, मीटिंग, प्लांनिंग, सवाल जवाब, बेमतलब का हिसाब, खाना, सफाई, ईमेल...

अजीब सी थकान है। सब रुक जाने का इंतजार।

क्या बाबा नहीं थकते? उठना, मालिश करवाना, 12 बजे खाना, सो जाना, 4 बजे चाय, 7 बजे खाना, सो जाना... उठना, मालिश करवाना, 12 बजे खाना...

क्या वो भी इंतजार करते हैं... सब रुक जाने का??

Friday, July 24, 2020

चिट्ठियां

तुम्हें लिखीं बाकी चिट्ठियों की तरह शायद ये वाली भी मेरी दराज़ में ही रह जाए। फिर भी ... तुम्हें लिखना ... तुम्हारे बारे में लिखना मेरी नियति है।

मृत्यु

हम मृत्यु से इतना घबराते क्यों हैं? आखिर मृत्यु का विकल्प जीवन ही तो है... यही घिसा-पिटा, रूखा-सूखा जीवन। 
वह और जी भी लेता तो क्या करता... अंत में तो मर ही जाता।

उस स्टेज पे मरना कितना सुखदायी है, जब आपकी रात प्रेमिका से बातें करते-करते बीत जाती है और अगले दिन ऑफिस में नींद आती है।

उस स्टेज पर चले जाना कितना अच्छा है जब माँ नींद से नहीं जगाती है... ' सोने दो न ', कहकर बाबा को परे हटाती है।

पढ़ते-पढ़ते मर जाना जीवन के सभी संघर्षों से बच जाना है। 

उस स्टेज पर मर जाना जब अब भी आप जी रहे हैं - अच्छा है।

जीते जी मर जाने के बाद मर जाना - प्रथा है।

काश मरने वालों को ये पता होता। 

अचानक

अचानक मन में कई ख्याल आते हैं। रोटी बना रही होती हूं। सोचती हूं दाल चढ़ाकर ये सब लिख दूंगी। फिर बिटिया मैथ्स का कोई सवाल लेकर आ जाती है। उसे हल करते करते मेरे ख्याल ओझल हो जाते हैं। मैं सब भूल जाती हूं। 
अरे! दाल पक गई। नमक थोड़ा कम है। 

Easy to leave

I don't enjoy what I am doing... Lost my dreams...lost my passion...lost 'me'... Goid for me... Easy to leave...

Sunday, July 19, 2020

थोड़ा सा मैं

मुझमें जो थोड़ा सा मैं बचा है... क्या उससे बचना मुमकिन है? पता नहीं कहां से उचक कर आ जाता है वो थोड़ा सा मैं... और फिर तुम थोड़ा थोड़ा कर उसे कुचल देते हो। बचा कुचा जो भी है, उसे बचा रहने दूं या उसे भी तुम बना दूं?

मुझमें जो थोड़ा सा मैं है, क्या उसे भी तुम बना दूं?

Saturday, July 18, 2020

लिखना

लिखना आसान है, 
सच लिखना थोड़ा मुश्किल, 
जो सभी को भाए ऐसा सच लिखना थोड़ा और मुश्किल,
जो सभी भाए और बिक भी जाए ऐसा सच लिखना बहुत मुश्किल।

Monday, July 13, 2020

जीवन बीत गया।

मैं बहुत कुछ लिख सकती थी,
कवि, शायरा, लेखिका बन सकती थी,
और फिर... कमरे की सफाई 
और महीने की कमाई में 
जीवन बीत गया!

मैं किताबें पढ़ सकती थी,
उपन्यास रच सकती थी,
इतिहास लिखकर, 
इतिहास रच सकती थी,
और फिर.... 
मोबाइल के मोह में,
और टी वी की टोह में
जीवन बीत गया।

मैं आज़ाद हो सकती थी,
अपना अनाज, अपनी तकनीक,
अपना सामान खुद बना सकती थी,
और फिर..
चीन के सस्ते माल,
और अमरीका के बवाल के चक्कर में
जीवन बीत गया।

Sunday, July 12, 2020

सुख की परिभाषा

तुम्हारे और मेरे सुख की परिभाषा में उतना ही फर्क है, 
जितना फाइव स्टार होटल के बाथरूम में लगे महंगे शावर में 
और पहाड़ों की बारिश में है।
- मानबी

तुम्हारे बारे में

Manav Kaul की लिखी किताब 'तुम्हारे बारे में' के मध्य में हूँ। हर किताब के कुछ उद्धरण होते हैं, जिन्हें आप अपनी डायरी में उकेर लेते हैं। फेसबुक, ट्विटर पर साझा कर इतराते हैं, किसी बहस के बीच इस्तेमाल कर जीत जाते हैं... ऐसे उद्धरण चंद ही होते हैं हर किताब में। बहुत अच्छी किताब हो तो हर पन्ने पर एक।

पर यह किताब ही उद्धरणों की है। हर वाक्य को बार-बार पढ़ने को जी करता है। हर वाक्य को ज्यों का त्यों लिख डायरी भर देने का मन होता है। हर एक लाइन को सोशल मीडिया पर शेयर कर इठलाने की इच्छा हो आती है।
तुम्हारे बारे में इतना ही कहूँगी मानव कि तुम्हारा लिखा हुआ बहती नदी है। मेरा सारा लिखा हुआ तुम्हारे सामने एक लोटा मैला पानी भर है।

- मानबी

डर

हम मरने से शायद इसलिए डरते हैं,
क्योंकि हम जीते-जी जीते ही नहीं...

- मानबी
#randomthoughts 

(Reading Manav Kaul these days :) )

Thursday, June 25, 2020

इन्हें सब पता है।

सरकार, उद्योग और मीडिया
इन्हें सब पता है।

इन्हें पता है पुराने दुःख को 
भुलाने के लिए आपको बस एक
नया, बड़ा और बेहतर दुःख देना है।

पुराने खौफ की दवा का स्टॉक 
खत्म हो जाने पर,
एक नया खौफ बाज़ार में बेचना है।

मुद्दे से ध्यान हटाने के लिए
एक खोखला, बदहाल, बेमानी
मुद्दे का झुनझुना आपके 
हाथों में पकड़ाना है।

सरकार, उद्योग और मीडिया 
इन्हें सब पता है,
कैसे खुद मूर्खता का ढोंग रचाकर
आपको मूर्ख बनाना है।

फेसबुक - अजीब शहर है ये..

फेसबुक - अजीब शहर है ये.. 
बिल्कुल आम शहरों की तरह.. 

अभी सच लिखने पर मारे गए 
पत्रकार की तस्वीर मिलती है,
और चार कदम आगे बढ़ें तो 
किसी के बर्थडे केक काटने की..

फेसबुक - अजीब शहर है ये.. 
बिल्कुल आम शहरों की तरह..

Monday, June 15, 2020

एक बार पूछकर तो देखो

एक बार पूछकर तो देखो
क्या पता वो अपने 
दिल का दर्द बता दे

एक बार फिर रुककर तो देखो
क्या पता वो खुद से अपनी
नाराजगी की वजह जता दे

'दिमाग का फितूर'
'दिल का वहम' 
'उदास रहने की आदत'
'ध्यान खींचने की चाह'
उसके माथे से ये टैग 
हटाकर तो देखो

क्या पता वो भी
खुदकुशी का ख्याल 
अपने दिल से हटा दे

- मानबी

Thursday, May 21, 2020

chapter 4

Didi's wedding was important and so was my Baba. Don't know how but selfishly I decided to leave my sad maiden family and join the happy in laws. Everything went well. Didi was happy with her new life in the same city as her parents.  Baba came out of the icu. I still have to hear from everyone that I left my parents when I was needed there. And I a seven months pregnant women had only one thing in my mind... my baby. Whenever someone came home and asked about Baba, Maa used to cry her heart out. And I kept thinking how my baby would be reacting inside.
Well, by God's grace Adi got another job. He left me with his parents this time.
I can't decide whether pregnancy is more painful or the post pregnancy rituals in our country.
The last two months of my pregnancy were spent by me on a slanting bed all the time and a unbearably painful injection every alternate day. But all this could not make me as mad as the non bathing 40 days of post delivery did. I was sick of eating just daal and chapati after a long tedious day and don't know how many sleepless nights. Those 40 days just changed my existence.  I came back to stay with Adi once mishti was 2 months old. Things were not the same. I was a different person altogether.

chapter 3

Life changes almost drastically. College... it was full of fun.
cultural week made me do everything that I loved to do. Anchoring the events made me feel so wonderful about myself that I started loving myself.
The last event I was anchoring for was final years farewell.  It meant Adi was going to go in a few weeks. And the day actually came.  I saw him going slowly away from me with the train. Two years passed. I completed my engineering and moved out to pune with my friends. 
Struggled a lot but ended up working with call centres.
finally dont know how Adi came back to my life. After a lot of efforts and family drama,we finally got married. 
A year passed and everything was just awesome. I loved Adi more and more with the time. And one day we were filled with the joy with the news of our coming baby. But our happy world took a twist when Adi's company decided to shut down in India and employees who wished to continue were offered to go abroad.  After quite a few opinions and suggestions from all our near and dear ones, Adi finally quit his job and joined a new company.  But soon he realised that he can't continue with this company.  So decided to go abroad with his previous company. I was five months pregnant and in a few weeks Adi was going to go very far. I was getting prepared for the day when I was going to deliver my baby with out Adi. Every night when Adi went to sleep I used to look at him and cry for the rest of the night. It was absolutely not easy for me but Adi and his happiness was always the first priority for me. Adi left me at my parent's place went away. As if this trauma was not enough ....my father got a brain stroke and got paralysed when I was seven months pregnant. And there at my in law's place Adi's elder sister was finally getting married. Adi came back.

Chapter 2

I and Aditya sir, (that's how we used to call the seniors), had become very good friends now. He had a huge group of friends since 1st year of his college and so did I. Aditya sir was mostly seen in the lobby of the main administrative building or in the library dealing(the word used for chatting in our college) with a bunch of boys from mechanical and mining and 3 girls from electronics and civil. Slowly I and Ankita, my batchmate and only girl friend in mechanical became a part of their boys group.  Said boys group because the girls never accepted us as friends being the juniors. 
I kept meeting Aditya sir casually in the college without even knowing that he is the one I was supposed to lead my whole life with.
It was 5th September 2003. Aditya sir was now in final year. Milind sir had become the president of Mesa(mechanical engineering student association). And I was the girls representative even being in 3rd year as there were no girls in the final year. 
We were organising teacher's day. Aditya sir was supposed to look after the snacks arrangements. He came in a kurta pajama and looked stunning. After speaking to me for a while he went to get the snacks. And I really don't know why I missed him so much till he came back.

Chapter 1

13th March 2014, 8:27 PM.
Here I'am cooking daal and making chapattis.
8:44 PM
Chapattis are made. Tasted the sabji and adjusted the seasoning. Answered all the questions by my daughter and came back again here :).
I started this blog in 2012 but today I was determined to write something in it.
Mishti, my daughter is still .....
9:09 PM
My mother in law called :D
so I was saying that Iam writing this along with answering my daughter's questions.
This might have given you the proof that how a lady can multitask once she has become a mother.
Yes life changes when you get married...and it gets almost upside down when you have a baby.
I still remember that lovely morning of the 2nd year of my college.
Two guys from the 3rd year came to my classroom and called me out.
One of them was a known face, who was there to help me in the freshers party, Milind Sir. And the other one...hmmm had seen him for the first time.
He introduced himself as Aditya and kept speaking till it was time to go.
They came to hand me over the gift for being the Miss evening in the freshers party.
Oops Mishti wanted me to play a rhyme on my phone. So stopped writing and played the song. And now writing with "old Mcdonald had a farm" in the background.
So where was I... ya so I recieved a gift for being Ms freshers. Getting into mechanical engineering had only two benefits.  One that as there were only seven girls in this department, there was less competition in becoming Ms. Freshers or Ms. Mechanical or finally Ms. Farewell :). And the second one again was being into minority, the majority that is boys gave more attention on us :D.
That was my first meeting with my now husband, Mr. Aditya Katoch.
9:28 PM
Its almost time for Adi to come back from his office and I'll be busy again with the daal roti stuff. So will share the rest of the story tomorrow with you guys. Till then stay loved...keep reading :)

Friday, May 15, 2020

पर्मनेंट सफाई कर्मचारी

"ये अस्पताल अब क्वारंटीन सेंटर बन गया है। अब यहाँ सिर्फ कोरोना के मरीज़ रहेंगे। तुम सब लोगों को बारी बारी उनका वार्ड साफ करना होगा।" - गोलपारा सिविल अस्पताल की सुप्रिटेंडेंट ने सभी सफाई कर्मचारियों को हिदायद दी।
डरे तो सब हुए थे, कहते है रोगी का छुआ हुआ सामान भी छूने से फैल जाती है ये बिमारी- उनमें बातें होने लगी। पर तुलू का डर कुछ और ही था। 
17 साल का था जब दारु पी पी कर बाप ने आखिर अपनी जान ही ले ली। मर गया तो माँ बहुत रोयी, मानों फूलों की सेज पर सोती आयी थी अब तक। मारता बहुत था, तुलू को भी और उसकी माँ को भी, पर कमा के भी तो लाता था। तुलू की माँ शायद उसी महीने दर महीने आने वाली आमदनी के बंद होने के गम से रोती थी।

तुलू 10वीं में ही था। गणित के मास्टर मोहंती का सबसे चहेता। 
'आग है इस लड़के में, इंजीनियर बनके दिखयेगा' मोहंती उसके छुड़ाए सवालों का उत्तर देखकर खुद ही कहता और मुस्कुराता था। पर पेट की आग के आगे गणित की आग बुझ गयी। तुलू नौकरी की तलाश में दर दर भटकने लगा। 
महीना हो गया था, कोई काम हाथ नहीं लगा था। बाप ने जो थोड़ा-बहुत बचाया था, वो उसके ही दाह संस्कार में लग गया। अब तो गुवाहाटी जाने तक का किराया नहीं बचा था।
अपनी फूटी किस्मत की कहानी तुलू अपने दोस्त केष्टो को सुना ही रहा था कि उसे एक उपाय सूझा।
'तू मेरे बाबा के अस्पताल में सफाई का काम करेगा?' उसने तपाक से पूछा। 

'हाँ हाँ करूंगा। क्यों नहीं करूंगा?' तुलू ने झट से जवाब दिया।

'पर... ' केष्टो अटका

'पर क्या... अरे नहीं यार इंजीनियर बनने का सपना अब कौन देखता है। सफाई कर्मचारी भी बढ़िया है। लगवा दे यार।' तुलू मुस्कुराते हुए बोला।

'वो बात नहीं है यार। बात ये है कि नौकरी पर्ममनेंट नहीं होगी। बाबा लगवा तो देंगे, पर तन्ख्वाह नहीं मिलेगी।' केष्टो ने बहुत हिचकिचाते हुए कहा।

'तो फिर???? तन्ख्वाह के बिना काम करूंगा तो खाऊंगा क्या??' तुलू को बहुत गुस्सा आ रहा था।

'अरे खायेगा। देख वहाँ अच्छा काम करो तो डॉक्टर और मरीज़ दोनों कुछ न कुछ टिप देते हैं। बहुत तो नहीं पर गुजारे लायक मिल जाएगा। बोल, करेगा?'

तुलू ने अपनी किस्मत के लिए एक मिनट का मौन रखा और फिर बोला, 'करूंगा केष्टो.. और कोई चारा भी तो नहीं।'

अगले दिन सुबह तुलू ठीक 9 बजे अस्पताल पहुँच गया। सुप्रिटेंडेंट ने साफ-साफ कह दिया, 'देख, बिप्लप दादा के कहने पर रख रही हूँ। अपनी मर्ज़ी से आया है। बाद में कोई लफ़ड़ा नहीं मांगता मेरे को, कि पेमेंट नहीं दे रे बोलके।'

तुलू सर झुकाये, हाथ जोड़े खड़ा रहा। बिप्लप दा ने गारंटी दी, 'नहीं बोलेगा मैडम। गरीब आदमी है। थोड़ा बहुत जो आप डॉक्टर लोगों से बन पड़ता है दे दीजिएगा। मरीज़ तो देते ही हैं। पेट भरता रहेगा बेचारे का।'

सुप्रिटेंडेंट के केबिन से निकलते ही तुलू ने बिप्लब दा के पांव पकड़ लिए। बिप्लप दा ने उसे उठाया और हिदायद दी, 'मन लगाके काम करना बेटा। मैडम ज़ुबान की कड़वी हैं, पर दिल की बहुत अच्छी हैं। बड़े लोग हैं, क्या पता तेरे काम से खुश होकर तुझे पर्मनेंट कर दें।'

तुलू ने इस बात को गांठ मार ली। पेशंट चाहे उल्टी करे या शौच, तुलू ज़रा भी नाक सिकोड़े बगैर सब साफ कर देता। मरीज़ खुश होकर उसे 10-20 रुपये दे ही देते। इधर डॉक्टरों के चेंबर भी शीशे जैसा चमकाए रखता, तो वो भी उसे आते-जाते कुछ न कुछ दे देते।
सुप्रिटेंडेंट मैडम तो हर महीने की पहली तारीख को उसके हाथ में 100 रुपये का नोट रखने से कभी नहीं चूकतीं, मानों तन्ख्वाह ही दे रहीं हों। पर वो खुद बाल बच्चों वाली थीं, इससे ज़्यादा क्या देतीं।

किसी तरह महीने के कभी डेढ़ तो कभी ढाई हज़ार मिल जाते। तुलू की ठीक ठाक कट रही थी। दो जून की रोटी का गुजारा चल रहा था।

अस्पताल में तुलू को सब जानते थे। पर विभाग में कोई नहीं। उसके काम से सभी खुश थे, पर उसका नाम, काम करने वालों की फेहरिस्त में था ही नहीं।

देखते-देखते पाँच साल हो गये। तुलू अब 22 का था। माँ ने लड़की देखी तो थी, पर लड़की का बाप तुलू की 'अब गयी तब गयी' नौकरी से डरता था। आखिर जैसे तैसे बिप्लप दा ने बात संभाली और तुलू का ब्याह करा ही दिया।

अगले साल घर में नन्हा तुलू भी खेलने लगा। तुलू ने और मेहनत करनी शुरु कर दी। जब जो जहाँ से बुलाता, वो हाज़िर हो जाता, फर्श, बरतन, बाथरुम सब ऐसे साफ करता कि खड़ूस से खड़ूस मरीज़ भी कुछ पैसे दिया बिना न जा पाता। 

पिछ्ले दिनों जब बरुआ की नानी अस्पताल से निकली तो सभी सफाई कर्मचरियों ने चैन की सांस ली। 
'पिंड छूटा, उफ्फ़ दिन में चार-चार बार संडास करती थी बुढ़िया। ज़रा देर हो जाए ट्रे उठाने में तो गालियां बकने लगती थी। न जाने घरवाले कैसे झेलते होंगे बुढ़िया को।' - बाकी सफाई कर्मचारी आपस में कानाफूसी करते।
पर तुलू बुढ़िया से खुश था। जितनी बार संडास करती और कोई और सफाई कर्मचारी जाने को मना करता उतनी बार डॉक्टर साहब उसे भेज देते और थोड़े पैसे हाथ में रख देते।

डेंगू का मौसम आया तो चांदी ही चांदी थी, अस्पताल खचाखच भरा होता था।
पर ये महामारी! ये तो कुछ और ही थी। धीरे-धीरे मरीज़ों को वापस भेजा जाने लगा। डॉक्टर छुट्टी पर जाने लगे। एक वार्ड में सिर्फ 4 पेशंट, जिनका छुआ तौलिया भी छू लो तो बिमारी तुम्हें लग जाए।
एक-एक करके सफाई कर्मचारी भागने लगे। सब ने इस वार्ड में जाने से मना कर दिया। सुप्रिटेंडेंट की समझ में नहीं आ रहा था कि सफाई किससे करवाए।

'आपने बुलाया मैडम?' तुलू ने सुप्रिटेंडेंट के केबिन का दरवाज़ा खटखटाते हुए पूछा।

'हाँ तुलू। कोरोना वार्ड में ड्यूटी कर लोगे? वहाँ...'

'हाँ हाँ कर लूंगा मैडम' सुप्रिटेंडेंट के आगे कुछ कहने से पहले ही तुलू ने जवाब दे दिया।

अगले दिन उसे पीपीई किट दी गयी। सर से लेकर पांव तक एक प्लास्टिक के थैले के माफिक। 'अप्रैल की गर्मी में इंसान वैसे ही चूसे हुए आम के जैसा हो जाता है। इसके अंदर तो रहा सहा रस भी सूख जाएगा' - तुलू ने सोचा।

'सारा दिन पहने रहना है। खाना खाते हुए भी नहीं खोलने का। काम खत्म होने के बाद डिसइन्फेक्ट करके डिसपोज़ करने का। लिमिटेड है। वेस्ट नहीं करने का। समझा?' - सुप्रिटेंडेंट ने हिदायत दी।

'जी मैडम कर लूंगा, सब कर लूंगा' 

पिछ्ले पाँच सालों में तुलू एक पल के लिए भी बिप्लब दा की कही वो बात नहीं भूला था ,'बड़े लोग हैं, क्या पता तेरे काम से खुश होकर तुझे पर्मनेंट कर दें।'

पूरे महीने वो लगा रहा। कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग कहते रहे कि मर जाएगा। ये डेंगू मलेरिया नहीं, कोरोना है। लाखों लोग मर चुके हैं। पर तुलू लगा रहा।  

चार ही पेशंट थे, कितना दे देते। उधर घर में बच्चे के दूध के लाले पड़ गये। तुलू की बीवी ने उधार मांग मांगकर गुजारा करना शुरु कर दिया, पर कब तक?

सुप्रिटेंडेंट को पता चला तो उसने कुछ पैसे भेज दिए। अगले दिन तुलू की तस्वीर फेसबुक पर डालकर लिखा, 'जब कोई सफाई कर्मचारी कोरोना वार्ड की सफाई करने को तैयार न हुआ तो तुलू आगे आया। मेरा सलाम है इस हीरो को।'

पोस्ट वायरल हो गयी। लोग पोस्ट पर 'जय हिन्द' लिखने लगे। चीफ मेडिकल ऑफिसर ने भी पोस्ट पढ़ा और सफाई कर्मचारियों के नाम पते वाला रजिस्टर निकाला। उसमें तुलू का नाम कहीं नहीं था।

'अरे ये सफाई कर्मचारी पर्मनेंट नहीं है क्या?' सीएमओ ने फोन लगाकर पूछा।

'नहीं सर पाँच साल से ऐसे ही काम कर रहा है। निकालिएगा नहीं सर। बहुत मेहनती है। मैं फेसबुक का पोस्ट हटा देती हूँ। माफी मांगती हूँ।' - 20 साल के करियर में सुप्रिटेंडेंट पहली बार किसी के सामने गिड़गिड़ायी होगी।

'अरे निकाल कौन रहा है? मैं तो इसे पर्मनेंट करने के लिए सिफारिश भेजने की बात कर रहा था। और सुनो पिछ्ले दिनों कोरोना वार्ड में काम करने के लिए दिन के 1000 रुपये उसके खाते में डलवा रहा हूँ। उसे बता देना।' 

21 दिनों का क्वारंटीन पूरा कर जब तुलू अपने गाँव पहुँचा, तो बिप्लप दा दौड़ दौड़कर ये अच्छी खबर सुनाने पहुँच गये।

'पर्मनेंट कर देंगे... देखा मैं न कहता था?'

"क्या मैं...मैं पर्मनेंट सफाई कर्मचारी बन जाऊंगा???"

तुलू की आँखों में आंसू थे। उसका बेटा पास बैठा कागज़ पर 1, 2, 3 लिख रहा था। बिप्लप बोला 'बहुत हुशार है तेरा लड़का, देखना इंजीनियर बनेगा'।
पर तुलू का ध्यान कहीं और ही था...वो पर्मनेंट सफाई कर्मचारी बनने के सपनों में खोया हुआ था।

नोट - सच्ची घटना पर आधारित पर कहानी में नाटकीय परिवर्तन किये गये हैं।

आत्मनिर्भर

वो चल रहा था....
चलता जा रहा था..
टूटी चप्पल लिए,
पांव के छालों को अनदेखा किये,
एक शहर से दूसरे शहर,
गोद में दुधमुहा बच्चा लिए 
वो चल रहा था...
चलता जा रहा था...
वो खैरात की रोटी नहीं चाहता था,
अपने गाँव पहुँच कर..
आत्मनिर्भर बनना चाहता था!

Lockdown Diary - 15th May 2020

देखते देखते पाँच साल हो गए सफल में रहते हुए। जब नई नई आई थी, तब रास्ता भटक जाती थी। सोबो से वापस आते हुए कभी गाला आर्या में घुस जाती थी, तो कभी सफल 1 तक पहुँच जाती थी।

अंदर जाने के बाद एहसास होता कि नहीं, ये तो अपना सफल नहीं है। हाँ! देखते ही देखते सफल कब अपना हो गया पता ही नहीं चला।
कई बार सोचती हूँ, वो क्या था जो सफल को इतना अपना बना गया?

ये किराये का मकान, जो सैंड पिट के ठीक ऊपर है? या मिष्टी का स्कूल, जो उसका फ़ेवरेट है?
यहाँ मनने वाला हर त्योहार? या यहाँ का लम्बा चौड़ा गार्डन, जैसा यहाँ की किसी और सोसाइटी में नहीं है।
लॉकडाउन के दौरान ये सब थे। पर फिर भी सफल, अपना सफल नहीं लगता था। 

वही सैंड पिट के ऊपर का मकान तो था, लेकिन शाम के 5 बजते ही बच्चों की किलकारियां नहीं सुनायी देतीं। बुजुर्गों के ठहाके कानों तक नहीं पहुँचते। न लेडीज़ के गप्पे और न ही क्रिकेट का शोर।

गार्डन ज्यों का त्यों था, पर सुबह-सुबह आंटियों के 'ऊँ' के उच्चारण के और पिकनिक करते बच्चों के बगैर मानों उसकी शोभा अधुरी थी।

मिष्टी का ऑनलाइन स्कूल भी चला, पढ़ाई का कोई नुकसान न हुआ, लेकिन बस अड्डे के वो ठहाके, मम्मियों की लास्ट मिनट इंसट्रकशन्स और बस छूट जाने के डर से दौड़ते पापाओं की कमी ये ऑनलाइन क्लासेस कैसे पूरी करतीं?

त्योहारों की तरह ही हर घर में पकवान बन रहे थे। परिवार साथ था। छुट्टियों का माहौल भी। पर लॉकडाउन ने समझा दिया कि सिर्फ यही सब तो त्योहार को त्योहार नहीं बनाते। सफल में त्योहार का मतलब तो पूरे सफल परिवार का मिलना था। एक साथ खाना पीना, झूमना, नाचना, आरती करना, फोटो सेशन... वो क्या कहते हैं, यहीं तो थी यहाँ की मज्जा नी लाइफ!!!

मेरी सबसे पहली सहेली यहाँ रेनू थी। उसका मकान L block में 9th फ्लोर पर है और मेरा H block में 1st फ्लोर पर। फोन पर वैसे ही बेडरूम में बैठे-बैठे बात हो सकती है, देखने का मन हो तो वीडियो कॉल हो सकता है। लेकिन फिर भी हम अपनी अपनी बालकनियों में आकर एक दूसरे को देखते हुए फ़ोन लगाते हैं। शायद इतना भी एक दूसरे के साथ होने का एहसास दिलाता है। सफल में होने का एहसास दिलाता है, इसलिए!

कल जब मैंने रेनू से कहा कि हो सकता है ये सब अब ऐसा ही रहेगा। शायद आज से कई साल बाद हम याद करें कि, 'याद है रेनू कभी हम साथ बैठकर चाय पिया करते थे। होली पर गले मिला करते थे।' 

रेनू ने झट से जवाब दिया कि अरे नहीं ऐसे सोचो कि कई साल बाद हम बातें करेंगे कि, 'याद है मानबी, वो कुछ महीने थे जब हम लॉकडाउन में थे और बस बालकनी पर खड़े खड़े फोन पे बात करते थे।'

दुआ है कि तुम्हारी ही बात सच निकले रेनू। ये लॉकडाउन  बस एक याद बनकर ही रह जाए, ज़िंदगी नहीं। और हमारा सफल फिर अपना सफल बन जाए... सारा परिवार फिर साथ आ जाए।

Wednesday, May 13, 2020

लोकल माल

पुश्तैनी काम है
ऐसे कैसे छोड़ दूँ?
उसने खीजकर कहा
और फिर बुनने लगा 
अपने पुरखों के सपने।

धागे-धागे का हिसाब रखता
महीन से महीन कारिगिरी करता
साड़ी के एक पल्ले पर
अपनी आँखों की बची कुची रोशनी
भी कुरबान कर देता

क्या चचा...इतनी महंगी साड़ी कोन खरीदेगा?
ऊपर से लोकल माल
सहर में सब सबसाची की साड़ी खरीदे हैं
एजेंट ने कहा

ऐ तो वो कौनसी सस्ती है?
मेरा आधे रेट पे बिकवा दे
साड़ी हाथ में लिए चचा डटे रहें 


काश लॉकडाउन पहले होता!!

न वो घर से निकलता
न मेरा बलात्कार होता।
काश लॉकडाउन पहले होता

दुकानें सारी बंद होती
तो ऐसिड कहाँ से मिलता
न मिलता, न मुझ पर फिकता,
काश लॉकडाउन पहले होता।

हवस के दरिंदे घर पर ही रहते
तो शायद मेरा देह ही न बिकता
काश लॉकडाउन पहले होता

लॉकडाउन हुआ, तो इन सबको लगा कि अब कोई बलात्कार नहीं होगा। 

किसी पर ऐसिड फेंककर उसका चेहरा नहीं छीना जाएगा। 

किसी लड़की की देह को मांस के लोथड़े की तरह नहीं बेचा जाएगा। 

सब डरे रहेंगे। 

घर में दुबके रहेंगे। 

ये सब अपना दर्द भूलाकर मुस्कुराने ही वाली थीं कि किसी के चीखने की अवाज आयी... रो रो कर वो कह रही थी... "मत मार...जाने दे..." 

रोज़ शराब पीकर आता है और मारता है। वो चाहती है लॉकडाउन खत्म हो और उसके घर में बैठा दरिंदा बाहर निकल जाए!

20 हज़ार करोड़ बहुत बड़ा आंकड़ा है। ये कहानी बहुत छोटी!

Friday, May 8, 2020

सख़्त रोटी

ये इंसान के छू लेने भर से फैलने वाली महामारी थी। पहले एक, फिर पाँच, फिर 100 और फिर लाखों लोग मरने लगें। ट्रेनें बंद कर दी गयीं। मज़दूर पैदल अपने घर जाने को मजबूर हो गया। रास्ता न भटके इसलिए ट्रेन की पटरी का सहारा लिया। रात थककर उसी ठंडी पटरी पर सो गया। उसे क्या मालूम था कि सिर्फ उसके जैसे मज़दूरों को घर पहुँचाने वाली ट्रेनें बंद हुई हैं, अमीरों की जरूरतें पूरी करने वाले माल को ले जाने वाली ट्रेनें नहीं!

लाशों के साथ अगले दिन के लिए बचाई हुई रोटियां भी पटरी पर मिलीं। लाशें कट चुकी थीं, रोटियां साबुत रहीं। कई दिनों की बनी होंगी, बेहद सख़्त थी शायद।

- मानबी

Wednesday, May 6, 2020

Lockdown Diary 6th May

Aaj ki sabse achchi baat... Adi ne jeevan me pehli baar khud ek bengali movie laga li. Office ka kaam tha...so tukdo tuldo me dekhte rahe. Comedy thi... ekdum bachcho wali comedy...isliye mujhe kuch khaas dilchaspi nahi thi. Par Adi ko maza aa raha tha. Movie ka naam tha Honeymoon. Badi mushkil se thodi thodi dekhte dekhte aakhir aaj raat ko movie khatm hui. Aakhir me gana baja " tan tana tun tun ... chol toke niye jaabo honeymoon".
Adi bhi gaane lage "jabo aami jabo honeymoon"
Mishti aur main khoob hase 😄


Friday, May 1, 2020

Lockdown diary May 1st

दिन भर दरवाज़ा नहीं खुलता... न मिष्टी जाते हुए कहती है, 'ओके मम्मा बाय, लव यू' और न दरवाज़े की आहट सुनते ही मैं पूछती हूँ, 'तू आ गया मेरा बेटा?'

25 मार्च के बाद आज जाकर मिष्टी को अपने लिए कुछ नया देख खुश होते देखा..
पिछ्ले हफ्ते एक दिन स्काई ब्लू खुला था। आदी मिष्टी के लिए कॉपीयां, पेंसिल, इरेजर, नई डिज़ाइन के शार्पनर, पेंट ब्रश और quilling papers ले आये थे।
हफ्ता भर उन्हें बाहर रखने के बाद आज सबकुछ धोकर, sanitize करके उसे दिया।

Thursday, April 30, 2020

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं!

मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं
अक्सर ये कहता था
दिन भर खट कर
धूप में चल कर
नमक रोटी तो कमा ही लेता था

इसके बच्चों की ज़िद भी
हफ्ते में एक बार, बस एक बार
दाल चखने से ज़्यादा न होती थी
ये ख्वाहिश भी पूरी करता जिस दिन
मालिक खुशी से 10 रुपये ज़्यादा देता था
मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं
यही सोच खुश रहता था।

बीवी ने एक बार कहा था
सुनो जी अब के खीर खाने को जी करता है
मुन्ने के वक़्त गुड़ की डली चूस चूस रह गयी
पर इस बार न जी बहलता है
चीनी, घी थोड़ी जो लाओ छटाक भर खीर बना लूंगी
बच्चों को थोड़ा थोड़ा चटाकर स्वाद इसका बता दूंगी।
कहो तो लल्ली की माँ से थोड़ा उधार ले आऊंगी
तपाक से उठा, लपाक से दौड़ा,
पत्थर तोड़े, सड़के बनाई, शौचालय तक साफ किये
रात लौटा घी, चावल, चीनी सब साथ लिए
कमर टूटी पर स्वाभिमान नहीं,
मज़दूर हूँ, मजबूर नहीं
एक बार फिर साबित की बात यही।

फिर एक दिन एक अनहोनी घटी
हाहाकार चारो ओर हुआ
महामारी के डर से काम धाम सब साफ हुआ
रोटी रोटी, पानी पानी
हर चीज़ को वो तरसता था
खुद रह लेता पर बच्चों की भूख कैसे सह सकता था
खड़ा हुआ कतारों में एक रोटी लेने को
हाथ फैलाये, सर झुकाये अब वो घुट घुट रोता है
मज़दूर हूँ.... मजबूर भी हूँ
आंसू दबाए ये कहता है!

#मज़दूर_दिवस 

- मानबी 

Tuesday, April 28, 2020

आजकल मैं कई चीज़ें भूल जाती हूँ।

आजकल मैं कई चीज़ें भूल जाती हूँ। 
फ्रिज का दरवाज़ा खोल
सोचने लगती हूँ कि लेना क्या था?

चीनी खत्म होने पर झट से स्लिपर डाले, 
दुपट्टा लिए, बगल के पंसारी की दुकान में पहुंच जाती हूँ
और पूरी दुकान भर घूमकर, चिप्स, बिस्किट और यहाँ तक की आइसक्रीम तक ले आती हूँ
पर चीनी लाना फिर भूल जाती हूँ।

बिटिया को उठते ही उसके नाश्ते की फर्मायिश पूछती हूँ
वो कहती है "डोसा खाऊंगी मम्मी.."
और मैं गरमा-गरम पराठें सेंक लाती हूँ

बिजली का बिल, रसोई का सामान, मेड के पैसे, धोबी का हिसाब
हाँ सब हो गया ... सब हो गया
पर वो जो रोटी बनाते बनाते एक कविता सोची थी,
उसे आधा ही लिख पाती हूँ
आजकल मैं कई चीज़ें भूल जाती हूँ

पर फिर भी न जाने क्यों एक पुराना दर्द अब भी याद आता है,
लाख भूलना चाहूँ, वो ज़हन में घात लगाए रहता है।
आजकल मैं कई चीज़ें भूल जाती हूँ
बस यही एक चीज़ है जिसे चाहकर भी 
मैं भूल नहीं पाती हूँ
आजकल मैं कई चीज़ें भूल जाती हूँ

Sunday, April 26, 2020

अंग्रेज़ी और हिन्दी

पाँच साल लग गये हिन्दी को अग्रेज़ी के बराबर खड़ा करने में। कल हुआ। रियल टाईम अंग्रेज़ी से बढ़ा तो सब हैरान थे। मैं हैरान थी, डरी  हुई.. खुश थी या नहीं पता नहीं। हर तरक्की के साथ एक त्याग भी साथ आता है।

Sunday, April 19, 2020

ये क्या किया इंसान?

इश्वर ने बनाया जल, नदी, पहाड़, प्रकृती और इंसान
न तो मान किया न ज्ञान बखान
जिन चीज़ों से खतरा था उनको रखा दूर
फिर भी हम ज्ञान के नशे में चूर, ले आये खोद्के नूर
गाड़ियां, बम, ऐसिड, बन्दूक, नशा और न जाने क्या क्या

Saturday, April 18, 2020

Lockdown Diary - 18 April 2020

Aaj college ke dosto se baat hui. Meenal ki delivery 5 din baadhai. Uska baby shower plan kiya. Pichle hafte Adi ke group ke saath bhi call tha. Wo call lambi chali thi. Wo wala group hamari tarah roz baat nahi karta, shayad isliye puchne ko bahut kuch tha, yaad karne ko bhi. Upar se ladko ko dinner ka waqt ho gaya...bachcha ro raha hai... jaisi koi tension nahi hoti..isliye 3 ghante tak lagatar baat karte rahe. Yaha pehle Swati ka chotu sone ko tha, fir Anky dono bachchu rone lage. Thodi baat aage badhi to Shiva ko Prishu ko khana khilana tha. 9:15 hote na hote mujhe bhi bechaini hone lagi ki Adi aur Mishti ko bhookh lagi hogi. Aur bas sabne 1 ghante me call nipta liya 😄


Friday, April 17, 2020

Lockdown Diary - 17 April 2020

25 March se lockdown kiya gaya Corona se bachne ke liye. Pahle 14 April tak tha, fir badha kar 3 May kar diya. Koi pareshan hai, to koi bore ho raha hai...

Hairat ki baat hai main dono nahi hu (touch wood). Jab sab theek tha to bada lagta tha ki chhutti wale din bahar jaye. Shayad isliye kyunki dusron ko bahar jata dekhti thi.
Par is lockdown se pata chala ki aisi koi dili khwahish wahish nahi hai meri ghumne ki. Bas Adi aur Mishti saath ho to sab mast hai :D
Shayad Shadi ke baad pehli baar Adi itna sara samay hamare saath bita rahe hain. Usually wo itni madad bhi nahi karte the, par ab sabne kaam baat liye hain, to ek alag hi satisfaction hai.
Office theek 9 baje se shuru ho jata hai aur sham ke 7-7:30 dam lene ki bhi fursat nahi hoti. Fir bhi dophar ka khana khake ek daanv aur raat ke khane ke baad ek daanv ludo ka jaise must hai.
Pehle jhadu, pocha, bartan ke liye maid thi. Cook bhi rakh li thi, fir bhi sham ko thak jate the hum dono. Ab Adi ki bhi meeting shuru ho gayi hai. Mera office to din bhar ka hai hi hai. Fir bhi hum dono baki saare kaam time par manage kar lete hain.
Main subah bartan, breakfast aur lunch bana deti hu 9 se pehle aur Adi kapde aur safayi ka kaam kar dete hain. Mishti bottles bhar deti hai aur din bhar zara bhi pareshan nahi karti :)
Itne sabke baad bhi raat ko hum sab ludo khelne ke liye bilkul fresh hote hain.
Shayad isliye kyunki kaam zyada to hai, par sabne khushi khushi baat liya hai. Dusri cheez ki koi bhagambhaag nahi hai. Hum apni taraf se time ke hisaab se kaam karte hain, lekin kahin pahochne ki hod nahi hai... aur shayad yahi wajah hai ki salary increment na hone ke baad bhi hum khush hai, santusht hain...kyunki shayad jeevan me bhi kahi pahunchne ki hod nahi hai ab :)
Bas is darr ko chhodkar baki sab kuch aisa hi rahe hamesha to kitna achcha ho na...

Achcha ek aur mazedar cheez... kuch time pehle ludo khelte hue jab gitti ghar tak pahunch gay to isko Adi ne kaha...meri gitti pug gayi :D
Bas tab se ghar pahunchne ka naam pug gayi pad gaya.
Mishti ki zubani - Mumma pugayi kyu nahi gitti?
Papa puga lo apni gitti... 

In dono ke liye main kitni shukraguzar hu....ye to main bayan bhi nahi kar sakti... zindagi me isse zyada aur chahiye bhi kya :)

Sunday, March 29, 2020

24th March 2020

Lockdown shuru hone se ek din pehle ...shukr hai mishti ke daant me pehle hi swelling aa gayi thi. Doctor se phone par Dawa puchkar Tuesday, 24 March 2020 ķo le aayi thi. Saath me sabziyan bhi...

Thursday, March 26, 2020

Corona lockdown day 6

Har din ek naye challenge ke saath aata hai. Kabhi site down, to kabhi purane pictures overwrite ho gaye. Is waqt jab sab ghar par hai, kabhi kabhi mann karta hai sabke saath baithke tv dekhu, ya mishti ko koi nayi cheez sikhau. Par naukri to karni hai....
Kal raat barish hone lagi...bijli kadkne lagi aur light chali gayi. Adi ne kaha bilkul Chennai jaisi situation hai. Par pata nahi kyu Chennai ki baadh me mujhe kabhi darr nahi laga tha itna. Haan shayad wo kuch din mushkil the jab hum hotel me hote the aur Adi ko office jana padta tha. Par andar se kahi na kahi ye pata tha ki pani utar jayega aur sab normal ho jayega. Samaan ki to kuch khaas tension kabhi maine li nahi.
Par ab...ab ek ajeeb sa darr hai...shayad isliye kyuki pata hi nahi ye sab kab khatm hoga. Kal raat ki barish me mano aisa laga jaise upar baitha koi hum insano se bahut naraz hai. Kai baar hota hai na... aapka bachcha itna bigad jata hai... ghar ki itni cheeze tod-fod deta hai ki aap gusse me aakar use khoob marte pitate hain, fir use kamre me band kar dete hai. Lekin jab aapka gussa shant ho jata hai to khud hi rone lagte hain aur sochne lagte hain ki aapki parvarish me kaha kami aa gayi thi??

Bhagwaan bhi shayad yahi sochke rote honge....hum to apne bachcho ko jald hi maaf kar dete hain aur agli galti karne ke liye chhod dete hain...par kya 'Wo' aisa karenge?


Wednesday, February 26, 2020

घंटा Equality!

मेरे कर्मक्षेत्र में लड़कियों का बोलबाला है।
पर कल इन्हीं में से 'एक' को 
लड़का "देखने" आनेवाला है।
इन मोहतरमा की तो ऑफ़िस में इतनी चलती है
कि मर्दों की तो क्या औरतों की भी इनसे जलती है
पर जब इन्हें लड़के "देखने" आते हैं
तो बेझिझक कह कर जाते हैं,
कि देखिए हम अपनी घर की औरतों से नौकरी नहीं "कराते" हैं।

दूजी की कहानी भी इनसे मिलती है
इनकी बेबाकी के आगे तो दुनिया हाथ मलती है।
पर जैसे ही शाम ढलती है
"सड़क" पर ये सहम-सहम कर चलती हैं।

तिजी ने ऐसे-ऐसे लेख लिखे 
कि अखबार हाथो-हाथ बिके 
पर इसका श्रेय इनके पतिदेव लेते हैं
क्युंकि वो ही तो इन्हें 
काम करने की "इजाज़त" देते हैं।

चौथी को किसीसे बैर नहीं
पर इनके आगे नेताओं की खैर नहीं
बस, सास जब बच्चे का ताना देती है
तो ये चुप कर के सब "सहती" हैं।

पंच कन्या की तो बात ही क्या है
पहेलियों में ये सबकी माँ है
पर जब बच्चों का "सवाल" आता है
तो इनसे भी नौकरी में टिका नहीं जाता है।

छटी कैमरा संभालती है
सनसनीखेज फोटो निकालती है
पर घर पर जब भी रोटी बेलती हैं
कोई न कोई नुक्स ज़रूर निकलती है।

सातवी, आठवी, नौवी या दसवी हैं
हम सब अलग सही, पर एक सी हैं
वरचुयालिटी की इस दुनिया में 
अलग लेवल की फेक सी हैं

So do you know what is Reality?
It is 'घंटा Equality'!



Sunday, February 9, 2020

"यह मेरी कहानी है"

कितनी आसानी से तुम लेखक बन जाते हो,
कह देते हो कि "यह मेरी कहानी है।"

भूल जाते हो उस 'किसी' को जिसने बताया था तुम्हें वो किस्सा।

याद नहीं रहता तुम्हें वह 'कोई' जिसने खोजकर दिया था वहाँ तक का रास्ता।

'उसका' तो ज़िक्र भी नहीं आता जिसने सबसे पहले बनाया था इसका दस्तावेज़ और संजोकर परोस दिया था तुम्हारी रिसर्च-रूपी थाली में।

इन सबको दरकिनार कर तुम 'अपना' लेख लिखते हो...

त्रुटियों, अशुद्धियों, वर्तणी और लय की परवाह किये बगैर मन की सारी बाते एक कागज़ पर लिख देते हो...

और थमा देते हो 'उस' संपादक को, जो बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा किये 'तुम्हारे' इस लेख को त्रुटिहीन कहानी की शक्ल देता है।

'तुम्हारी' इस कहानी की लिखाई, छपाई और पाठकों तक पहुँचाने का ज़िम्मा भी 'जो' लेता है, उसे नहीं मिलती कोई वाह-वाह।

सबसे पहला पाठक जो इसे पढ़कर भूलता नहीं, दूसरों को भी पढ़ने की सलाह देता है 'उसे' तो शायद तुम जानते भी नहींं...

फिर एक दिन टीवी पर आ रहे किसी साक्षात्कार में तुम अपना परिचय देते हो...

"यह 'मेरी' कहानी है... 'मैं' इसका लेखक हूँ।"