Saturday, August 29, 2015

माँ, मर्डर और मिडिया!

पिछले चार दिनों से हर न्यूज़ चैनल, हर अखबार और हर भारतीय एक ही चीज़ को लेकर परेशान है .....की "आखिर एक माँ कर्ण अपनी ही बेटी को क्यों मारा?"

चर्चा पे चर्चा, इंटरव्यूज पे इंटरव्यूज और एक एक नए खुलासे। मानो हमारे देश की उन्नति बस इसी एक केस के सुलझने पर निभर करती हो।

पर इस केस में ऐसा क्या है जो आप सभी को इसमें दिलचस्पी है?

नहीं! अब सारा दोष मीडिया पर न मढ़ दीजियेगा। आप!!...आप, जो इस देश के एक आम से नागरिक है, आपको भी इस केस में उतनी ही रूची है। तो जब अर्णब गोस्वामी इस बार ये कहे की 'द नेशन वांट्स टू नो' तो उसे झुटलाईयेगा नहीं। बेचारा इस बार बिलकुल ठीक बोल रहा है।


लेकिन आप सभी को क्या हैरान कर रहा है? क्यों इसी केस में दिलचस्पी है आपकी? ऐसे हज़ारो मर्डर केस देश में चल रहे है जिसकी पुलिस बेचारी बिना कोई जवाबदेही दिए शिनाख्त कर रही है। ऐसी कई माँये है जो अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपने ही बच्चे का खून कर देती है। फर्क सिर्फ इतना है की हर कोई इन्द्राणी मुख़र्जी की तरह हाई प्रोफाइल नहीं होती। और न ही वे अपने बच्चे के 24 बरस का होने का इंतज़ार करती है।

क्यों? यकीन नहीं होता? या हमेशा की तरह सच से मुह मोड़ लेना चाहते है?
देश के किसी भी अनाथालय में चले जाईये, वहाँ आपको 90% बच्चे अविवाहित माँ के ही मिलेंगे। कुछ को ये माँए खुद छोड़ जाती है और कुछ को इन्द्राणी जैसी माँए शीना की तरह मरने के लिए किसी कचरे के डिब्बे में फेंक देती है। जो बच जाते है वो अनाथ कहलाते है और जो नहीं बचते वो तो किसी गिनती में ही नहीं आते।

लेकिन हमारे समाज की विडम्बना देखिये। हमें शीना बोरा से सहानुभूति है, जो अब मर चुकी है। हम और हमारी बेहद सक्षम मीडिया दिन रात ये सोच रही है की कातिल कौन है। यदि शीना की माँ कातिल है तो क्यों है? और यदि पैसो या प्रतिष्ठा की खातिर ये सब हुआ तो कितनी शर्मनाक बात है ये किसी भी माँ के लिए। 

पर यही मीडिया, यही हम, उन बच्चों से कोई सहानुभूति नहीं रखते जो ऐसी ही प्रतिष्ठा की बली चढ़कर रह गए। शायद इसलिए क्यों की उन बच्चों की माँ पीटर मुख़र्जी जैसी बड़ी हस्ती की पत्नी नहीं होती। या उनकी माँए इन्द्राणी मुख़र्जी की तरह किसी बड़ी मीडिया कंपनी की सी.इ.ओ नहीं होती।

कर्ण की व्यथा शायद इसीलिए महाभारत में दर्ज़ है क्योंकि वो महारानी कुंती का पुत्र था। वर्ना न जाने ऐसे कितने कर्ण रहे होंगे इतिहास में!

ये मर्डर मिस्ट्री तो हमारे आपके या मीडिया के दखल न देने पर भी जैसे सुलझनि है वैसे ही सुलझ जायेगी।पर जिन नवजात शिशुओ का क़त्ल उनकी माँ समाज के डर से कर देती है, उनकी स्थिति हमारे दखल देने पर ही सुधरेगी।

काश मीडिया उन मुद्दों पर दिन रात सोचती जिनसे समाज में कोई तबदीली आती न की उन मर्डर मिस्ट्री पर जिनसे समाज को कोई फर्क नहीं पड़ता।

Thursday, August 20, 2015

Main 'Maa' hu...Mujhe sab kuch nahi milta..

मैं माँ हूँ, मुझे सबकुछ नहीं मिलता...
कभी साँसे नहीं मिलती,
तो कभी समंदर नहीं मिलता।

वक़्त की बाज़ी हारकर रह जाती हूँ अक्सर
वक़्त पे मुझको या घर नहीं मिलता या कैरियर नहीं मिलता

दोनों दुनिया एक ही में समेटूँ किस तरह
कभी अपने ही बच्चों का बचपन नहीं मिलता
तो कभी दफ्तर की तरक्की का बड्डप्पन नहीं मिलता।

घर पर रुक जाऊ तो बेकार समझते है वो मुझे
बाहर निकल जाऊ तो गद्दार कहते है मुझे
दोनों ही तरफ मुझको सुकून नहीं मिलता
मैं माँ हूँ मुझे सबकुछ नहीं मिलता...
कभी साँसे नहीं मिलती,
तो कभी समंदर नहीं मिलता।

Tuesday, August 18, 2015

गुलज़ार.... तुम्हारे जन्मदिन पर... कुछ यूँ ही!

मुझे नहीं पता तुम कितने साल के हो। लोग कहते है तुम 81 के हो गए हो। अच्छा ठीक उलटा के देखु तो अब बालिग़ हुए हो।मेरे लिए तो तुम हमेशा 18 बरस के ही रहे। अब भी हो। ये तो अब हुआ की फेसबुक और ट्विटर पर जब तुम्हारा नाम ट्रेंड करने लगा तो पता चला की आज तुम्हारी सालगिरह है। वर्ना तो तुम मुझे किसी अवतार से लगते थे, जिसका जन्म नहीं हुआ, जो प्रकट हुआ हो।

कितनी अजीब बात है कि गूगल के आ जाने से अब हर किसी को ये पता है कि तुम्हारा नाम क्या है। इतने साल तुम्हे पढ़ते रहने के बाद भी मुझे तुम्हारा असली नाम नहीं मालूम हुआ। मैंने तुम्हे नाम की तरह सोचा ही कहाँ कभी। मेरे लिए तो तुम बस एक एहसास थे जिसका नाम नहीं होता। इस तरह के एहसासो को नाम मिल जाए तो कहते है वो बदनाम हो जाते है। तभी तो तुम्हे बस महसूस किया... नाम नहीं सोचा।

अच्छा नदियो में तुम्हे सरस्वती सबसे प्यारी है..है ना? तभी तो उसका मोल समझाने के लिए तुमने 'त्रिवेणी' रच डाली। लोग गंगा जमना में उलझे रहे और तुमने चुपके से सरस्वती खोज निकाली। जानते हो...मैं भी इसी आशा में छुपी रही कि एक दिन इसी तरह तुम मुझे भी खोज निकालोगे। पर हर छुपी हुई नदी सरस्वती तो नहीं होती... है ना?

बोस्की ब्याहने का वक़्त आया तो तुम उदास से लगे। बोझिल सी उन रातो को जब पश्मिनि जामा पहना रहे थे, तब मैं  उन सर्द रातो के गर्म होने के इंतज़ार में बिना स्वेटर के ही चाँद देखने निकल पड़ती थी।

रावी पार की पहली कहानी पढ़ी तो यकीन हो चला कि कम-स-कम तुम्हारा मज़हब तो मेरे मज़हब से मेल खाता है। नहीं नहीं ... अब्बा से शादी की बात करने के लिए नहीं। पर यूँ ही... तुमसे कुछ भी मेल खाता मिले तो अपने आप पे फक्र सा होता था, इसीलिए।

और फिर तुमने 'परवाज़' पढ़ी । जब अब्दुल कलाम साहब का इंतकाल हुआ तब किसीने ये सुनने को कहा। तुम यकीन करो न करो पर लगा मृत्यु तभी सफल होती है जब गुलज़ार तुम्हारी ज़िन्दगी पढ़ ले।

काश तुम किसी दिन मुझे सरस्वती सी ढूंढ निकालो।

काश तुम कभी अपनी पश्मिनि रातें मुझ पर ओढ़ा दो।

काश तुम सम्पूर्ण होकर भी गुलज़ार रहो और मोहब्बत का मज़हब संभाले रखो।

काश तुम किसी दिन मेरी ज़िन्दगी पढ़ो और मेरी मौत को मुक्म्मल कर दो।

काश तुम 81 बरस और जियो और फिर भी 18 के लगते रहो।

जन्मदिन मुबाराक हो!!

Friday, August 14, 2015

आज़ादी 'छोटू' की!!


आज़ादी की 70 वि वर्षगाठ मनाते मनाते,
अचानक देखा एक 7-8 साल के बच्चे को कुछ सामान ढोकर लाते।
उसे आता देख हमें याद आया..
अरे ये तो वही सामान है जो हमने अपनी सोसाईटी की दूकान से है मंगवाया।

सामान उसके हाथो से लेते लेते, हमने यूँही पूछा..
"छोटू आज तो पंद्रह अगस्त है, हर कोई आज़ादी के जश्न में मस्त है,
फिर तू ही क्यों अपने रोज़ के काम में व्यस्त है?
जा जाके आज़ादी मना...
देख सारे बच्चे पतंग बना रहे है,
जा जाकर तू भी बना..."

ये सुनकर छोटू मुस्कुराने लगा और मुस्कुराते मुस्कुराते, हमसे कहने लगा..

"क्या मैडम.. काहे को झूठे सपने दिखाते हो?
ये आज़ादी वाज़ादी तो आप बड़े लोग फ़ोकट में मनाते हो।
पर हम जैसो को इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।
एक दिन मज़दूरी न करो तो खाली पेट रात गुज़ारनी पड़ती है।
आज काम नहीं करूँगा,
तो रात को क्या खाऊंगा?
अरे मेरा क्या है, जिस दिन फ़ोकट में खाने को मिलेगा,
उसी दिन आज़ादी मना लूंगा!!!

ये सुनकर हम सुन्न से रह गए।
तिरंगे को लहराते देख ये सोचते रह गए
कि क्या छोटू को कभी फ़ोकट में खाना मिल पायेगा?
छोटू जैसा हर बच्चा क्या कभी भी आज़ादी मना पायेगा???