Friday, December 30, 2016

तू किसी रेल सी गुज़रती है

तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।

याद आया ये किसकी कविता है?
आप कहेंगे, "कविता?..ये तो मसान फिल्म का गाना है।"
पर क्या आप जानते है कि वरुण ग्रोवर के लिखे इस गाने की पहली दो लाइने जो आप सबसे ज़्यादा गुनगुनाते है वो कवि दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल से ली गयी है।

अभी हाल ही में 'हिंदी कविता' नामक लोकप्रिय यूट्यूब चैनल पर दुष्यन्त कुमार की पोती ने इस कविता को पढ़ा। पर पढ़ने से पहले ये नहीं कहा कि ये उस दुष्यन्त कुमार की कविता है जिसने ऐसी कई खूबसूरत कविताएं लिखी है। दुष्यन्त कुमार को हमसे मिलवाने के लिए उनकी पोती को मसान का सहारा लेना पड़ा। कहना पड़ा कि ये जो गाना आप लोगो को पसंद आया, ये दरअसल मेरे दादा की कविता है जिसे तब तक अपनी अलग पहचान नहीं मिली जब तक बॉलीवुड ने इसे अपनी एक फिल्म में जगह नहीं दे दी।

कैसी विडम्बना है न हम जैसे कवियों की ...हमारी कविताओं की। हम तब तक गुमनाम रहते है जब तक हम गुलज़ार या जावेद अख्तर नहीं बन जाते या फिर हमारे मरने के कई साल बाद कोई कवि ,कोई गीतकार हमारी कविता के कुछ अंश लेकर किसी फिल्म का गाना नहीं बना देता।

खैर! आज दुष्यन्त कुमार की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए... आईये सुनते है उनकी ये कविता, जो वास्तव में कुछ इस प्रकार है -

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ 

एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ 

तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ 

हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ 

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ 

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ 

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ

Saturday, December 17, 2016

कभी कभी माँ बहुत उदास होती है!

कभी कभी माँ बहुत उदास होती है
कुछ कहती नहीं ...बस चुपचाप होती है
कभी कभी माँ बहुत उदास होती है।

बहुत पूछने पर धीमे से कहती है
आज जोड़ो का दर्द तेज़ है..
और कोई बात नहीं।

तू सुना...मुन्नी स्कूल गयी?
तूने नाश्ता किया?
दामाद जी टूर से लौटे?
कई सवाल एक साथ कर लेती है
कभी कभी माँ बहुत उदास होती है।

बाबा की सेवा, घर की सफाई,
मेहमानों से बातचीत, डॉक्टर के चक्कर
इन सबसे फुर्सत मिलते ही मुझे फ़ोन लगाती है
कभी कभी माँ बहुत उदास होती है।

कुछ कहती नहीं..बस चुपचाप होती है
कभी कभी माँ बहुत उदास होती है।

Monday, December 12, 2016

दांत का दर्द

मेरे दांत में काफी समय से दर्द था। असहनिय तो नहीं था पर एक लंबे समय से इस एक सार दर्द से मैं ऊब चुकी थी। हारकर आखिरकार डॉक्टर के पास गयी। पर डॉक्टर ने जानबूझकर कहिये, अनजाने में मानिये या फिर गलती से मेरे दांतो का और बुरा हाल कर दिया।
दर्द अब असहनीय हो चूका था। कई महीनो तक इस दर्द के साथ रहने के बाद आखिर एक दिन उस दांत को निकलवाना पड़ा।
आजकल एक और दांत में दर्द है। पर पिछले का ज़ख्म अभी तक भरा नहीं.... मुझे अब डॉक्टर के पास जाने से खौफ आता है।

Wednesday, December 7, 2016

परिंदा!

कभी कभी जो ख्वाहिश आसमान में उड़ते हुए परिंदे को देखकर होती है, अक्सर दूर से किसी की ज़िन्दगी को देखकर वैसी ही एक ख्वाहिश होती है। कि काश मैं उसकी तरह ऊंचा उड़ पाता। कि... वाह क्या उड़ान है उसकी... क्या ज़िन्दगी है। न रोक न टोक... न ज़िम्मेदारियाँ .. न मजबूरियां... बस जहाँ दिल करे, जब दिल करे उड़ते रहो...
पर वही परिंदा शायद आपको देखकर सोचता हो... कि वाह! क्या लाइफ है बन्दे की... न खाने की तलाश में जगह जगह उड़ते रहने की टेंशन.. न घरोंदा बनाने के लिए तिनको की

Monday, November 21, 2016

बोल कि लब आज़ाद है तेरे!

चाहे आप भक्त हैं या एंटी नैशनल
चाहे आप सरकार की हर हाँ में हाँ मिलाते है या हर दांव का पेच ढूंढते है!
चाहे आप केवल फेसबुक पर ग्राउंड रियालिटी चेक करते है या 
ग्राउंड पर जाकर भी सच नहीं देख पाते है!
चाहे आप ज़ी और सुदर्शन न्यूज़ देख कर अपना सच तय करते है या टाइम्स और एनडीटीवी के भरोसे बैठते है!

आप चाहे जो भी है.... बोलिये.. बोलते रहिये... यहाँ ...इस स्पेस पर लिखते रहिये। क्योंकि आज़ाद है आप। आपसे बोलने-लिखने का हक़ कोई नहीं छीन सकता। 

पर कुछ करने का अधिकार न जाने कौन छीन ले गया... है न?
इसलिए न भक्त कुछ करता है, न एंटी नैशनल। ये दोनों सिर्फ बोलते है। एक दूसरे पर बोलने के अधिकार की धांक़ जमाते है। और इन दोनों के बोलने का मुद्दा भर बना वो - जो भक्त है न एंटी नैशनल, न संघी है न लिबरल... वो कतार में लगा रहता है ... इस उम्मीद से कि बोलने की आज़ादी रखने वाले ये फ़ेसबुकिया लोग एक दिन अपने कुछ करने की आज़ादी का दम भी भरेंगे और इनके लिए ग्राउंड पर कुछ करेंगे।
फिर भी बोलते रहिये.....

Tuesday, October 4, 2016

मुल्क!

मेरे मुल्क के लोग बहोत खुश है आज
क्या तेरे मुल्क में भी जश्न का माहौल है?
- मानबी

मैं लड़ता था उन परिंदों से
जो तिनके जोड़ने चले थे...
मेरी बज़्म को बचाने की खातिर
-मानबी

अच्छा हुआ कि मर गया कोई अपना
उसके मातम में आजकल मैं लड़ता नहीं अपनों से मेरे।
-मानबी

उजड़ी हुई बस्तियों को बचाने चले हो?
तुम बचे कूचे घरो को भी जलाने चले हो?
- मानबी

बदस्तूर निभाना तुम दुश्मनी उनसे
शर्त ये कि उसके बाद कोई मलाल न हो।
-मानबी

कुछ बर्फ के थे, कुछ रेत के मकान
न आग में टिके, न पानी से बच पाये।
-मानबी

Thursday, September 29, 2016

डूब मरो!

वो कहते है "तुम डूब मरो"
पर ऐसे कैसे मर जाऊं?

ऐसे कैसे मर जाऊं माँ जब तक तुम ज़िंदा हो
जब तक बाबा मर नहीं जाते, ऐसे कैसे मर जाऊं?

मेरे मारने की खबर सुनकर बाबा को फिर अटैक आ गया तो?
घुट घुट कर जी रही हो पर मेरी लाश देख तुम्हारा दम ही घुट गया तो

बोलते है तो बोलते रहे कि डूब मरो
ऐसे कैसे मर जाऊं...जब तक तुम ज़िंदा हो।

भाई-भाई का खेल!

तू मुझको सता कर खुश है..

मैं तेरी तकलीफ में सूकून पाता हूँ....

भाई-भाई के इस खेल में माँ ने आंसू बहाये है बहोत।

- मानबी

तलाश!


तलाश-ए-जुस्तजू में बीती उम्र सारी

वो जो मेरा था, उसकी तलाश कब थी मुझे

वो जो मेरा न हुआ उसको ढूंडा किये उम्र भर

-मानबी

Wednesday, September 28, 2016

काश मैं तुम जैसी होती।

काश मैं तुम जैसी होती।

तुम ...जिसे सिर्फ अपने मान अपमान से वास्ता है।

तुम.... जो अपमान होने पर झट से कह देते हो कि नहीं जाऊंगा वहाँ।

तुम ... जो माफ़ी मांगे जाने पर मान जाते हो।

तुम... जो दुबारा अपमानित होने चले भी जाते हो।

काश मैं तुम जैसी होती।

मैं... हाँ मैं जो तुम्हारे अपमान को अपना समझ बैठती हूँ

मैं ... जो वहाँ नहीं जाती जहाँ तुम नहीं जाना चाहते हो।

मैं... जो समझती हूँ कि तुम भी ऐसा ही सोचो।

पर तुम ...तुम तो 'मैं' नहीं हो न।

तुम.. जिसे सिर्फ अपने मान अपमान से वास्ता है।

काश मैं तुम जैसी होती।

Saturday, September 24, 2016

अभी बहोत कुछ करना था!

अभी बहोत कुछ करना था...

ढेरो कवितायें लिखनी थी

रेडियो पर बोलना था

टी.वी पर भी आना था

इक किताब अधूरी सी...वो भी लिखनी थी

ग़ज़लो की किताब छापनी थी

अभी बहोत कुछ करना था...

पर छोटा था वो...उसे छोड़कर जाती कैसे
मैं माँ थी... अपने बच्चे को रुलाती कैसे।

क्या ऐसा नहीं हो सकता?

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि न तुम बदलो न मैं?
और फिर भी रहे हमारा प्रेम...अटूट, अडोल और अमर?

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि श्रावण में मैं मांस खाऊ,
और तुम उपवास करते रहो

हर एकादशी पर तुम चाहो तो पाठ करो
और मैं पार्लर जाऊं

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम्हारी माँ सारे उलाहने तुम्हे दे
और मेरी माँ सारी खातिरदारी मुझे?

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं तुम्हे तुम्हारे तौर से जीने दूँ
और तुम मेरी जीवनशैली का मान करो

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि तुम ये कहना बंद करो
कि 'हमारे यहाँ ऐसा होता है'।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मैं कहूँ कि 'मैं ये नहीं करना चाहती'।

क्या ऐसा नहीं हो सकता कि न तुम बदलो न मैं..
और फिर भी रहे हमारा प्रेम...अटूट..अडोल और अमर?

Friday, September 23, 2016

महंगाई!

महँगी थी तभी तो किसी किसी की हुई..

ये वफ़ा थी..शादी नहीं जो हर कोई कर ले!

इंसान!

सूखे का मौसम है तुम पानी न मांग लेना मुझसे

ताज़ा ताज़ा इंसान बना हूँ मैं,

कही लहू ही न पी लूँ तेरा!

- मानबी

मुश्किल

हर तरफ प्यार था, मुहब्बत थी, मदहोशी थी..

बस #मुश्किल ये थी कि इक ख्वाब था वो, जो अब टूट गया।

- #मानबी

#मुश्किल  से किया पानी का इंतज़ाम सियासतदारों ने..

सुखा पड़ा तो खून से भर दी नदियां।

-मानबी

आसान!

जब सो गए.. तो क़त्ल कर दिया उनका,

जागती ख्वाहिशों को यूँ मारना #आसान न था।

- मानबी

Wednesday, September 14, 2016

हिंदी दिवस!

लो! ख़त्म हुआ हिंदी दिवस।
और ख़त्म हुई हिंदी पर बहस।

22 राजभाषाये है.. तुम हिंदी दिवस ही क्यों मनाते हो?
बाकी 21 माइनॉरिटी में है, इसका फायदा उठाते हो?

अच्छा एक बात बताओ,
आखिर क्यों मिले हिंदी को इतना भाव?

दो चार गालियाँ छोड़ दो तो हिंदी में क्या रखा है?
वो हिंदी से क्यों इंप्रेस हो, जिसने अंग्रेजी चक्खा है।

अब तो हिंदी दिवस की बधाई भी "हैप्पी हिंदी डे" कहकर दी जाती है,
हिंदी का जन्मदिन समझकर, अंग्रेजी मोमबत्ती बुझाती है।

पर हिंदी है कोई लौ नहीं, जो बुझ जाए इस तरह भाई
इनके रक्षक ढेरों है..प्रेमचंद, बच्चन और परसाई।

जिसको हिंदी नहीं बोलनी, वो न बोले, कोई बात नहीं।
इसको बचाने की कोशिश किसी भाषा पर आघात नहीं।

हिंदी बोलो न बोलो, बस, उसका सम्मान करो ये आशा है।
तुम्हारी न सही.. ये तुम्हारे ही किसी भाई की.. मातृभाषा है।

Monday, September 5, 2016

मेरी किताब

कई बार सोचा, एक किताब लिखूं। कितनो ने सलाह भी दी, "आप किताब क्यों नहीं लिखती?" पर जब कभी ये ख्याल मन में आता तो बस एक ही कहानी नज़र आती- कहानी उन 6 महीनो की, वो 6 महीने जिन्होंने मुझे बिल्कुल बदल दिया। जिनकी वजह से आज 6 साल बाद भी मैं दुबारा पहले जैसी नहीं बन पाती।
अब कोई कुछ नहीं कहता पर वो बातें आज भी सुई की मानिंद चुभती है। अब ये काम में हाथ भी बटाते है पर वो राते अब भी याद आये तो सिहर सी उठती हूँ।
पर फिर रुक जाती हूँ। ज़ख्मो को बड़ी मुश्किल से एक परत सी लगाकर ढक सा रखा है। ये परत खोल दूंगी तो सारे ज़ख्म उसी तरह ताज़ा, लहूलुहान मिलेंगे।

Thursday, August 25, 2016

पत्रकारिता।

"पत्रकारिता" माने सच्चाई को लोगो तक पहुचाना और अच्छाई के लिये सच्चाई को लोगो तक पहुँचाना।
हाँ मेरी ये धरना गलत भी हो सकती है।

क्योंकि आजकल पत्रकारिता के मायने सच्चाई को नाटकीय रूप से लोगो तक पहुँचाना बन गया है।

सच्चाई को अच्छाई के लिए कम और अपने चैनल या पत्रिका/अखबार की भलाई (टी आर पी) के लिए ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है।

इसका जीता जागता उदाहरण ओरिसा के उस इंसान का वो वायरल होता वीडियो है जिसमे उसे अपनी मृत पत्नी को उठाकर चलते हुए दिखाया जा रहा है।
उसके गाँव से हज़ारो किमी दूर गाडी में एरॉन से एफ एम् सुनते हुए लोग जब ट्रैफिक में रुकते है तो औपचारिकतावश एक कमेंट दाल ही जाते है।

हर कोई प्रशासन को कोस रहा है। अस्पताल को दोषी ठहरा रहा है, देश को शर्म से डूब मरने की सलाह दे रहा है।

पर एक पत्रकार होने के नाते सबसे पहला प्रश्न जो इस वीडियो को देखकर मुझे कचोटता है वो ये है कि जो इस वीडियो को ले रहा था वो मानव था या हैवान?
वो पत्रकार वहां कैसे पहुंचा? पैदल???
अगर नहीं... तो तुरंत उसने अपनी गाडी उस व्यक्ति को क्यों नहीं दी? और अगर उसने गाडी दी तो फिर ये व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को दुबारा उठाकर क्यों चल रहा है???

जवाब आप भी जान गए होंगे अब तक!

देश में अब तक ऐसे कई हिस्से है जहाँ गाडी तो दूर हमारी ये खोखली सहानुभूतियाँ तक नहीं पहुँचती। पर सुविधाये इन तक हमारे आपके शर्म से डूब मरने से नहीं बल्कि एक जुट होकर हल निकालने से पहुचेंगी। और इसके लिए अब इन पत्रकारो को शर्म करनी होगी... केवल सनसनी नहीं खबर पहुचानी होगी।

Monday, August 8, 2016

Congratulations Dada!!

Congratulations Dada :)

I have no idea how his childhood was...
But Baba always made me feel privileged by saying that "I am happy that I can buy a Rs.10 dairy milk for you. When Gautam was small I couldn't even buy a toffee for him."

I have no clue if he liked his first school...
But I know he was going to a Bengali medium school which had just 4 hut shaped rooms.

I know he topped all through his school but I have heard people saying that he did because it was the low class hindi medium school of the city.

I have seen him stuying late for his engineering in the kitchen while I slept in the only bedroom of our 3 room house.

I know his students recognized him from far by the old yellow bajaj scooter he drove while all others had a bike. But his race was different.

I could see how Maa Baba didn't buy any thing new during those two Durga Pujas when he was doing his masters. But I also saw how Baba didn't took even a day to buy a new nameplate when his result for M.Tech was out.

I have heard him consoling me and Maa while he was all alone with Baba in the ICU for 26 days.

I have experienced his helplessness when building a house seemed a distant dream...but he did it for Maa Baba in the mid of his research.

I write stories... stories of unsung heroes!!! But here is my hero... My brother.. Dr. Gautam Bacher !!

Congratulations Dada!!! Nothing can make me and Maa Baba more proud than your achievements because people might see only the degree but we have seen the struggle, the hardwork, the dedication and the perseverance behind it !!!!

Friday, July 15, 2016

Tumi Na Thakle!!!

https://youtu.be/BxpwWvt7Zcc

Tumi na thakle sokalta eto mishti hoto na
Tumi na thakle megh kore jeto brishti hoto na
Tumi acho bole mon kosha koshi Kore hasa hasi nak ghosa ghoshi
Rapa pa pa pa pa ong bong chong...Oh yea..

Tumi na thakle gorer math ta mathey mara jeto
Tumi na thakle goriya hath  ta guate malar moto
Tumi na thakle gaitona gupi baghar dol..
Mohonbagan kobe hoye jeto sudhu eastbengal..

Tumi acho bole teksashe bose topse macher fry
New jarsitey tomar garite hotath tomake chay
Tumi acho bole sisilite ache suchitra uttam
Aaj bagdad kal bepilone tomar sommelon

Tumi na thakle sukumar roy lungi pore gamcha golayKhobor porto..
Rapa pa pa pa pa ong bong chong...
Oh yea..

Tumi na thakle sumoner naam hoye jeto nachiketa
Tumi asbe bolei likhto na keu tomar moner kotha..

Tumi na thakle kobitar mane hoye jeto kirton
Tumi na thakle sunil shokti hoye jeto shonaton..

Tumi na thakle usha uthup kochinei theke jeto
Gaito na gaan paray paray tomar moner moto

Tumi na thakle namchi mumbai
Tumi na thakle Kolkata chere kobe tata bye bye

Tumi na thakle bonolota sen 
Sokal Sondhey daktar lane-e kapor kachto
Rapa pa pa pa pa ong bong chong...

Tumi - na - thakle Oh yea..Tumi - na - thakle give me more
Tumi - na - thakle...

Tumi na thakle debdas kobe hoye jeto khudiram
Tumi na thakle sudhu daan dik thakto na kono bam

Dhormotolay roj lege jeto dhormer yuddo
Tumi na thakle bechto biri goutam budhho
Tumi - na - thakle...

Tumi na thakle rabindranath kalir doyat mathay thukehoto kupokath..
Rapa pa pa pa pa ong bong chong...

Tumi - na - thakle
Tumi - na - thakle..

Friday, July 8, 2016

Aaji baangladesher hriday hote kakhon

Aaji baangladesher hriday hote kakhon aaponi
Tumi ei aporup rupe baahir hole jananee.

Ogo maa, tomay dekhe dekhe aankhi naa phire.
Tomaar duyaar aaji khule gechhe sonaar mondire.

Daan haate tor khargo jwale, bnaa haat kare shankaharon,
Dui nayone sneher hnaasi, lalaatnetra aagunbaron.

Ogo maa, tomar ki muroti aaji dekhi re. Tomaar duyaar aaji khule gechhe sonaar mondire.

Tomaar mukto kesher punja meghe lukaay ashani,
Tomar aanchal jhale aakashtale, roudrabasanee.

Ogo maa, tomay dekhe dekhe aankhi naa phire.
Tomaar duyaar aaji khule gechhe sonaar mandire.

Jakhon anaadare chaaini mukhe bhebechilem dukheeni ma
Aachhe bhaanga ghare ekla pare, dukher bujhi naaiko seema.

Kotha se tor daridra besh, kotha se tor molin haasi- Aakashe aaj chhoriye gelo oi charoner deeptiraashi.

Ogo maa, tomar ki muroti aaji dekhi re. Tomaar duyaar aaji khule gechhe sonaar mondire.

Aaji dukher raate sukher srote bhaasao dharonee- Tomar abhay baaje hriday maajhe hriday haronee.

Ogo maa, tomay dekhe dekhe aankhi naa phire.
Tomaar duyaar aaji khule gechhe sonaar mondire.

- Rabindranath Tagore

Translation :

When did you come out of the heart of Bangladesh,
O, Mother dear, with such inexplicable splendor!

It’s impossible to take away eyes from you!
The doors of your golden temple have unlocked.

Your right hand holds the blazing sword, the left one takes away fear,
Smile of affection on the eyes, the third eye glaring.

O Mother dear, how uniquely you reveal yourself!

The cloud of your untied hair conceals thunders
Ends of your sunlight coloured robes flutter in the horizon!

It’s impossible to take away eyes from you!
The doors of your golden temple have unlocked.

When impassionately did not look up seemed
Poor mother stayed back home , desolate, destitute.

Your torn clothes vanish now, meager smile disappear.
Beams of light scatter from your feet into entire sky

O Mother, your appearance astounds me. You flood the world with the flow of happiness on the distressed nights

O the mindblower, your word of fearlessness drum the heart

It’s impossible to take away eyes from you!
The doors of your golden temple have unlocked.

Thursday, June 16, 2016

बाबा क्या बनना चाहते थे?

https://youtu.be/eYqEpuifLI8

हम सभी को अपने पिता से कुछ न कुछ शिकायत होती है। मुझे भी थी... मुझे लगता कि शायद मैं पत्रकार बन सकती थी या लेखक बन सकती थी पर बाबा ने मुझे इंजीनियर बना दिया।
मैं क्या बनना चाहती थी ये तो मैंने अक्सर सोचा। पर बाबा क्या बनना चाहते थे?? कभी ख्याल ही नहीं आया इस बात का। ज़ाहिर है वो स्टोर कीपर तो नहीं बनना चाहते होंगे न।
बाबा कहते है वो मैथ्स में बहुत अच्छे थे। क्या पता वो इंजीनियर ही बनना चाहते हो। क्या पता उन्होंने सोचा कि जैसे उनके इंजीनियर होने से हमारी ज़िन्दगियों में काफी कुछ बदल जाता वैसे ही हमारे इंजीनियर बनने से हमारे बच्चों की ज़िंदगियाँ बदल जाए।
बाबा को मैंने कभी अपने लिये देखा कोई ख्वाब बांटते नहीं सुना कि मैं ये करना चाहता था या वो बनना चाहता था। शायद हमारी ज़रूरतो के आगे उन्हें स्टोर कीपर ही बने रहना ठीक लगा।
उन्हें मैंने ड्रामा ऑर्गेनायिस करते हुए देखा है। अलग अलग प्रोग्राम्स का मैनेजमेंट करते देखा है। और इन सबमे डूबते देखा है। क्या पता वो थिएटर करना चाहते हो। क्या पता वो इवेंट मेनेजर बन सकते थे।
पर हमने कभी पूछा ही नहीं उनसे ये सब।

अपनी कहानी की मंथरा को पहचाने।

हम सभी रामायण की कथा बचपन से सुनते और पढ़ते आ रहे है। हर साल रावण को जलाकर हम बुराई पर अच्छाई की जीत को मनाते है। हमे हमेशा ये बताया गया है कि रावण ही रामायण का असली खलनायक है।

हाँ! रावण खलनायक था पर मेरे मत में रामायण का असली खलनायक या कह लीजिये खलनायिका कोई और ही है। नहीं, मैं कैकयी या शूर्पणखा की बात नहीं कर रही। रामायण में घटे सभी अनहोनियों की जड़ यदि कोई है तो वो है कैकयी की दासी मंथरा

मंथरा कैकेयी के लिए माँ सामान थी। मंथरा ने उसे पाल पोसकर बड़ा किया था। कैकयी को अंत तक ये कभी समझ में नहीं आया कि भलाई की आड़ में मंथरा उससे उसके जीवन का सबसे बड़ा दुष्कर्म करा रही है।

हमारे जीवन में भी कई बार ऐसी कई मंथरायें आ जाती है, जो अपनेपन की आड़ में हमारी सोच और बुद्धि को दूषित कर हमारे जीवन को नष्ट करके दम लेती है। और हम अपनी बर्बादी का दोषी रावण को ही समझते रहते है। पर हम ये नहीं समझते कि हमारी बुद्धि पर यदि कोई मंथरा हावी न हो तो शायद हमारी कहानी में कभी रावण के आने की जगह ही न बने।

आपके जीवन की मंथरा चाहे आपके कितने भी करीब का व्यक्ति क्यों न हो, यदि रिश्ते या दोस्ती को दरकिनार करके आपने इसे अपने से दूर नहीं किया तो आपका भी वही हश्र होगा जो कैकयी का हुआ!

- मानबी कटोच

Thursday, June 9, 2016

पिता का कर्तव्य!

कुछ रोज़ पहले कॉलेज के व्हाट्स अप ग्रुप पर चर्चा हो रही थी। हमारे एक दोस्त काम के सिलसिले में विदेश जा रहे थे। कुछ 6 महीने की बात थी तो परिवार को अपने साथ ले जाना मुमकिन नहीं था।

सभी दोस्त उनकी तरक्की पर खुश हुए। बधंईयां दी। पर फिर वे कुछ इमोशनल से हो गए। बोले, बेटा सिर्फ 6 माह का है, खूब खेलता है, नयी नयी चीज़े करने लगा है, बहुत याद आएगा... शायद जब तक मैं वापस आऊंगा, मुझे भूल चूका होगा। हम सबने सांत्वना दी कि ऐसा नहीं होता। और आखिर तुम उसके भविष्य के लिए ही तो बाहर जा रहे हो।

वे कुछ शांत हुए। पर हर माँ बाप उनकी उलझन समझ सकता होगा। पिता ऐसे ही होते है। कहते नहीं कि उन्हें पास रहकर अपने बच्चे को बड़ा होता देखना है, उसे संभालना है, उसे कहानियां सुनानी है, रोये तो उसे हँसाना है या फिर घंटो उसे गोदी में लिए खेलना है। वो अपने बच्चे के भविष्य के लिए इन सारे सुनहरे पलो को छोड़कर बाहर मेहनत करने के लिए निकल पड़ता है।

इसके लिए बाहर तो उसकी वाहवाही होती है कि कितना काबिल पिता है। पर कई दफा घर के लोग ही उसे ये कहकर नकारा बाप साबित करने पे तुले होते है कि इसे तो इस वक़्त अपने बीवी बच्चों के पास होना चाहिए था।

पिता इन सब लांछनों को सुनकर भी अनसुना करके बस अपना काम करता रहता है। वो इस हकीकत को जानता है कि जिस ऐशो आराम के ख्वाब वो अपने बीवी बच्चों के लिए देख रहा है, वो उनके पास रहकर कभी नहीं दिला सकता। उसके लिए उसे अपना मन मारकर उनसे दूर जाना ही होगा।

सोचिये अगर एक छोटे से घर को चला रहे हमारे पिता से हम इस बात की अपेक्षा रखते है कि वो घर पर बैठा बस हमारे रोने पर हमे चुप न कराता रहे बल्की बहार जाकर उस खाने का इंतज़ाम करे जो हमे भूख लगने पर खिला सके या उस खिलौने का इंतज़ाम कर सके जो हमारे रोने पर हमे दे सके तो हम देश के प्रधानमंत्री से ऐसी आशा क्यों रखते है?

Tuesday, May 17, 2016

Don't tell my mistakes to others (Sarcasm)

My friend - Tell me my mistakes... not to others

Me - Ok...so here it is..these are your mistakes

My friend - WTF!!!! Those are not my mistakes.... it is your mistake to think that those are my mistakes....

Me - Hmm...ok!

My friend - But next time please tell me my mistakes... I seriously want to rectify them.

Me - Hmmmm.... okkk ....sigh!!

Disclaimer : Any resemblance to real persons, living or dead is purely coincidental. So please do not call the author and tell her that it is her mistake to use your mistake in her writing :D

Saturday, May 14, 2016

Undo और Redo

मुझे कंप्यूटर की दुनियां बहुत पसंद है। तैश में आकर कुछ लिख दो। फिर सोचो नहीं नहीं शायद ये पढ़ने वालो को अच्छा न लगे तो undo का बटन दबा दो। सब लिखा हुआ सफा चट। पढ़ने वालो के बाप को भी पता नहीं लगेगा कि आपने क्या लिखा था।

लेकिन फिर अगर  undo दबाते ही आपका ज़हन आपको कचोटे, आपको लगे कि अरे यही तो वो जगह है जहाँ आप सच्चे हो सकते है। जो मन करे लिख सकते। जैसी भाषा चाहे इस्तेमाल कर सकते है और अपने अंदर की भड़ास निकाल सकते है। आखिर इसी में तो आपकी ओरिजिनालिटी है। आपके लेखक होने का वजूद आपकी इसी सच्चाई पर तो टिका है। तो no worries.... झट से redo का बटन दबाएं और ये क्या आपके शब्द वापस....आपका असल चेहरा...आपकी सच्चाई वापस...'आप' वापस।

पर असल ज़िन्दगी में ऐसा नहीं होता। वक़्त आपको बदल देता है। लोग आपको बदल देते है। आप सब भूलकर redo का बटन दबाना चाहते है। पहले जैसे मस्तमौला, बिंदास, निष्पाप, मासूम बनना चाहते है पर नहीं बन पाते। न undo हो पाता है न redo।।

Tuesday, May 10, 2016

Porer jonme ...... Mone thaakbe?

Porer jonme boyesh jokhon sholoi shothik,
Tokhon aamra preme podbo,

Mone thakbe?

Booker modhye mosto bodo chaad thakbe,
Shitol paati bichiye debo,

Shondhye hole boshbo dujon.
Ekta duto khoshbe taara,

Hotaat tomaar chokher paataay, taaraar chokher jol godaabe,

Kaanto kobeer gaan gayibe,
Tokhon aami chup ti kore, du chok bhore thakbo cheye.

Mone thakbe?

Ei jonmer durrotto ta Porer jonme chukiye debo,
Ei jonmer chuler gondho Porer jonme thake jyano
Ei jonmer maataal chaawa Porer jonme thaake jyano..

Mone thakbe?

Aami hobo udon chondi ebong khaanik ushkho khushko
Ai jonmer paari patto shobaar aage khuchiye debo
Tumi kaandle gobheer shukhe,
Ek nimishe Shob tuku jol shushe nebo.

Mone thakbe?

Porer jonme kobi hobo,
Tomaay niye hajaar khaanik gaan baandbo.
Tomaar omonishtho niye, naak chabiyaar nupur niye, gaan baaniye, melaay melaay baaul hoye ghure byadabo.

Mone thakbe?

Aar ja kichu hoi ba na hoi,
Porer jonme titaash hobo,
Dol moncher aabir hobo,
Shiuli tolaar dhurbbo hobo,
Shorot kaaler aakaash dekhaar ononto neel shokaal hobo

A shob kichu hoi ba na hoi, tomaar prothom purush hobo..

Mone thakbe?

Porer jonme tumio hobe neel pahaader paagla jhoraa
Gaayer poshaakh chude fele tripto aamaar obogaahon.

Shaara shoreer bhore tomaay hirok chinno bhalobasha.
Tomaar jolo dhara aamaar ohonkaar ke chiniye nilo

Aamaar onek kothaa chilo
A jonme taa jaaye na bolaa

Bookey onek shobdo chilo
Shajiye guchiye tobuo thik kaabbo kore bola gyalo na

A jonmo to kete i gyalo oshombhober oshongote

Porer jonme maanush hobo,
Tomaar bhalobaasha pele, maanush hobo i

Miliye niyo..

Porer jonme tomaay niye...

Bolte bhishon lojja korche..bhishon bhishon lojja korche...

Porer jonme tomaay niye...

Mone thaakbe?

- Aryanak Basu

Friday, May 6, 2016

How Rabirndranath was there at every step of my life.

My journey with Robi Takhur (Rabindranath Tagore) started from the various poems Maa recited when I was a child and of course with our National anthem and ‘Ekla Cholo Re’.

But the first time I would say I fell in love with him was when Maa read out Karn-Kunti Samwad from Sanchayita.

As I am born and brought up in Maharashtra I couldn’t read Bangla well and so Maa read out the poems and stories in Bangla and I used to write the my favourite ones in English or Hindi script.
Karn – Kunti Samwad was the first poem that I wrote in my diary.

You can hear the poem here:

https://youtu.be/qx7wof_82fc

When I was in my teens songs like ‘maya bono biharini horini’ and ‘Amar bela je jaye’ became my favourites.

Listen to ‘Amar bela je jaye’ in the voice of the legend Kishore Kumar

https://youtu.be/i9aywSaMMQ8

As I grew up as a young lady and fell in love for the first time Rabindra Sangeet played the magic with songs like ‘Amaro porano jaha chaaye…tumi taayi’.

Listen to the beautiful song here..

https://youtu.be/mlRmTkh33Po

Once I got married and got my soul mate Tagore’s ‘jibono Moroner shimana chaadaye bondhu he aamaar royecho daraye’ made more sense :)

https://youtu.be/2yqtjholKGI

Then came my princess…my daughter and the cycle repeats now…

I introduced my daughter to Robi Thakur with the story of ‘Kabuliwalah’.

And as I see her playing I often sing… “Ai kotha ti mone rekho..tomader ai haashi khelaay’.

Listen to this song in the voice of Hemanta Mukherjee.

https://youtu.be/4vurfNUc77E

And at the end can’t stop myself from sharing this beautiful Rabindra sangeet album sung by Shaan..

https://youtu.be/qGXVB9atnGk

Thursday, April 28, 2016

घर का नाम!

Old type quarter,
Opp. To G.M office,
Mahakali Colliery,
Chandrapur.

बरसो तक यही हमारा पता रहा। माँ कहती है कि जब मैं तीन साल की थी तब हम इस क्वार्टर में आये थे। हमसे पहले यहाँ कोई हरी बाबू रहा करते थे। और फिर ये मकान बच्चर बाबू का हो गया। बाबा के ट्रांसफर्स भी हुए पर हमने ये मकान कभी नहीं छोड़ा।
कहते है बहुत पुराना मकान था ये। मालकशाह के ज़माने का। जब कभी उसकी दीवारो की दरारों से मिटटी गिरती तो माँ कहती - "और कितना चलेगा... मालकशाह के ज़माने का है। कभी गोदाम हुआ करता था, ये हाल तो होना ही है।"
मालकशाह कौन था, कब हुआ करता था मुझे नहीं पता। पर नाम से लगता था बहुत पुराना कोई आदमी था। तो ये मान लिया कि मकान भी पुराना ही होगा।
कभी बिल्ली घुस आती और पलंग के नीचे गंदा कर जाती। तब माँ को बड़ा गुस्सा आता... साफ करते करते बुदबुदाती कि न जाने कब छुटकारा मिलेगा इस मकान से।
बस तीन कमरो का मकान था तो हम भी कभी नए क्वार्टर मिलने की बात करते। लेकिन तब माँ को इस क्वार्टर की सारी खुबिया याद आ जाती।
"इतना बड़ा आँगन है। पीछे बरामदा है। इतने पेड़ पौधे लगाये है हमने। कहाँ मिलेगा ये सब दूसरे बड़े क्वार्टर्स में?", माँ कहती।
30 साल गुज़र गए। कभी छत टपकती कभी चूहे आ जाते। कभी बन्दर सारे अमरुद खा जाते। तो कभी सांप बिच्छू का डर सताता। पर माँ ने इस मकान को अपना घर बनाये रखा।
कोई और आप्शन भी तो नहीं था माँ के पास। दादा की पढ़ाई, फिर मेरी पढाई और शादी, फिर बाबा की बीमारी... इसे अपना घर न बनाती तो कहाँ जाती।

आखिर 30 सालो बाद बाबा के रिटायरमेंट पर जो पैसे मिले उनसे माँ बाबा इस क्वार्टर को छोड़ अपना घर बना सके।
बस एक महीना और। दादा ने उस दिन मुझसे कहा कि मैं नए घर का नाम सोचके रखु। नाम कुछ ऐसा होना चाहिए जो इस बात को जताता हो कि ये माँ बाबा के जीवन भर की पूंजी है, उनका बरसो का सपना है।

10 -12 नामो की एक लिस्ट तैयार करके मैंने माँ को फ़ोन लगाया। उन्हें सारे नाम बताये। उनमे से कुछ माँ को बहुत पसंद भी आये। हमेशा की तरह बाबा पीछे से पूछते जा रहे थे कि हम माँ बेटी क्या बात कर रहे है। सब सुनने के बाद बाबा ने कहा। नहीं... इनमे से कोई नाम नहीं...घर का नाम तो बस 'उमा' ही होगा।

'उमा' - माँ का नाम!

सोसाइटी V/S इंडिविजुअल घर

सोसाइटी...
यदि आप कभी किसी सोसाइटी में न रहे हो तो शायद आपको इसकी एहमियत न मालूम हो। इंडिविजुअल घरो के मुकाबले सोसाइटी खुशियों की दौड़ में हमेशा आगे रहती है।

इंडिविजुअल घर - जहाँ दर्जनों नीरस, बेबस, अनजान सेल्स मैन रोज़ घंटी बज बजाकर आपका जीना दुश्वार कर देते है।

सोसाइटी - जहाँ आप किसीका बेसब्री से इंतज़ार भी कर रहे हो तो उसके आने पर चौंकते नहीं क्योंकि गेट से चौकीदार आपको कॉल करके कहता है कि अमुक आया है...आपका हुक्म हो तो भेज दिया जाये। बिलकुल आकाओ वाली फीलिंग होगी आपको।

इंडिविजुअल घर - जहाँ आप पंडितजी के बताये हर उपाय सहजता से कर सकते है। गाय, कुत्ता, कौआ, सूअर, गधा सब बाहर ही मिल जायेंगे। जिस भी गृह की शांति के लिए जिस भी जानवर को रोटी, केला या खीर खिलानी हो खिला सकते है।

सोसाइटी - भाई ये दिक्कत तो है यहाँ। एनिमल्स आर स्ट्रिक्टली प्रोहिबिटेड, तो गृह शांति के उपाय के लिए जानवर ढूंढने के लिए हो सकता आपको नज़दीकी झोपड़पट्टी तक जाना पड़े।

इंडिविजुअल घर - सुबह की शुरुवात यहाँ चिड़ियाँ की चूं चूं से नहीं सब्जी और दूध बेचनेवालों की पुकार से होगी।

सोसाइटी - यहाँ माजरा थोडा रोचक है। सुबह सुबह खिड़की खोलते ही लोग ब्रांडेड जूता मोजा पहने भागते नज़र आएंगे। कोई शोर नहीं...कोई आवाज़ नहीं। कुछ मम्मी पापा बच्चों को खींचते और खुद खीझते भी मिलेंगे। घबराये नहीं! ये बस स्कूल बस पकड़ने की दौड़ का नज़ारा होगा।

इंडिविजुअल घर - यहाँ आपके पडोसी आपके घर के कमरो को गिनना और देखना चाहेंगे कि कही उनके घर के कमरे कम और छोटे तो नहीं।

सोसाइटी - यहाँ पडोसी आपके परदे, कारपेट और क्रोकेरी से आपको आंकेंगे क्योंकि घर सभी के एक जैसे ही होंगे।

इंडिविजुअल घर - शामे यहाँ आपको आपकी टीवी पर आ रही किसी मरियल से सिरियल को देखकर या देश और दुनियां की बासी खबरे सुनकर बितानी पड़ेगी।

सोसाइटी - यहाँ शामे भी सुबह से कम खूबसूरत नहीं होंगी। पार्क में खेलते बच्चे, स्विमिंग करती महिलाये, टहलते बुज़ुर्ग जोड़े। सब खूबसूरत।

सोसाइटी एक सपनो की दुनिया सी है। जब तक यहाँ खुश रह सकते है...रहिये... क्या पता जिन्दी कब आपको इंडिविजुअल घर की हकीकत में ले जाए!