Thursday, July 30, 2015

हम कौन होते है याकूब की सज़ा तय करने वाले?

30 July 2015

आज सुबह 1993 में हुए मुम्बई ब्लास्ट के लिए ज़िम्मेदार आरोपी याकूब मेमन को फांसी दे दी गयी।
सुना है हमारे देश के कई लोग (जिनका मुम्बई ब्लास्ट के 257 मृतको या 713 पीड़ितों में से किसीसे भी कोई वास्ता नहीं है) इस बात को दुखद मानते है।

कुछ को अपने ही संविधान पे शर्म आ रही है, ये सोचकर की आखिर ऐसे महापुरुष को 22 साल तक पाल पोसकर बूढ़ा करने के बाद दुबारा कोई महान काम करने के लिए छोड़ने की बजाय देश के सर्वोच्च न्यायालय ने फांसी कैसे दे दी।

कुछ इस बात को बेहद निर्मम मानते है की किसीको उसके जन्मदिन पर ही मार दिया जाए।

कुछ कहते है की जब फांसी न देने का कहकर जनाब से इनफार्मेशन ली गयी थी तो देश के इस ईमानदार नागरिक के साथ ऐसा धोखा आखिर क्यों किया गया?

कुछ कहते है की उसके किसी जाती विशेष का होने की वजह से उसके साथ ये नाइंसाफी हुई।

एक भाईसाहब को ये बात भी बुरी लगी की जज ने मनुस्मृति में लिखे एक वाक्य का उदहारण देकर फांसी को न रद्द करते हुए याकूब जी का अपमान कर दिया।

इसी दौरान एक न्यूज़ फ़्लैश और आया.... "जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान ने ceasefire का उल्लंघन कर दिया। एक जवान शहीद!"

किसी ने इस बात पर दुःख नहीं जताया।

किसीको पता नहीं की इस जवान का जन्मदिन कब था।

किसी ने नहीं सोचा की इस जवान का इस उम्र में चले जाना इन्साफ था या नहीं।

किसीको नहीं पता की ये जवान किस धर्म के इंसानो को बचाते हुए शहीद हुआ।

हम ....जो अपने घरो में सुरक्षित बैठे सिर्फ 10-12 न्यूज़ चैनल्स के ज़रिये अपनी राय बनाते है...

हम....जो किसी आतंकवादी को उतना ही जानते है जितना उसके द्वारा सताये हुए पीडितो को....

हम... जो सिर्फ हादसों को तभी हादसा समझते है जब वो हादसा हमारे साथ हो जाता है...

क्या हमे इन हादसों के शिकार लोगो के....हज़ारो जवानो के ...गुनाहगारो के लिए सज़ा तय करने का अधिकार है?

क्या हमें ये तय करने का अधिकार है की एक बेटे से उसकी माँ छीन लेने वाले को.... एक हस्ते खेलते परिवार से उनकी खुशियाँ छीन लेने वाले को सहानुभूति की अमूल्य भेंट दे?

हाँ देश में कई गुनहगार है जिन्हें ऐसी ही सज़ा मिलनी चाहिए। पर क्या याकूब मेमन की सज़ा माफ़ हो जाने से उन्हें फांसी हो जाती? नहीं!
पर हाँ अब सुप्रीम कोर्ट के पास हमेशा एक उदाहरण होगा जिसके बिनाह पे इन जैसो को ऐसी ही सज़ा दी जा सकेगी!
और जहाँ बात धोखे की है तो कई बार भस्मासुर से दुनिया को बचाने के लिए मोहिनी बनकर छल करना ज़रूरी होता है। अपने बचाव में भी वार न करने वाले सांप की कहानी भी तो आपने सुनी होगी!

1993 मुम्बई ब्लास्ट में म्रत्यु को प्राप्त सभी आत्माओ को मेरी श्रधांजलि!!!

Friday, July 17, 2015

आपकी अबीहा....


अब्बु ...क्यों उदास हो
मैं लौट कर आउंगी

जब भी ईद पर सेवइयां बनेंगी
मैं उसकी मिठास बनकर आउंगी

जब भी दो लोग ईद मुबारक कह गले मिलेंगे
मैं उनकी मोहब्बत बनकर आउंगी

सजदे में जो भी झुकेगा
उसकी इबादद बनके आउंगी

अब्बु...क्यों उदास हो
मैं लौट कर आउंगी....

-आपकी अबीहा



Thursday, July 16, 2015

जाना पहचाना अनजाना सा मेरा शहर....

चंद्रपुर! मेरा शहर.. मैंने कभी चंद्रपुर का नाम खबरों में नहीं सुना। खबरे जिनमे अक्सर खून, बलात्कार, धोखाधड़ी और लूटमार के लिये ही जगह होती है, उनमे चंद्रपुर के लिए कोई जगह नहीं थी। सो हम बेफिक्र रहे...हमेशा... सारा चंद्रपुर घर जैसा लगता। उतना ही सुरक्षित जितना घर होता है। सारे लोग उतने ही अपने और नेक जितने घर के लोग होते है।

जब शादी के बाद गुडगाँव में रहने लगी तो माँ हमेशा डरती थी क्योंकि उन्होंने गुडगाँव का नाम अक्सर खबरों में सुना था। सच कहू तो थोडा थोडा डर तो मुझे भी लगता था। चंद्रपुर में रास्ते पर चलते हुए कभी नहीं सोचा की शायद कोई पीछे है जो पर्स छीन लेगा या ज़बरदस्ती मुह बंद करके उठा ले जायेगा। पर कभी गुडगाँव में ऑफिस से आने में देरी हो जाती तो लगता जैसे भेड़िये पीछा कर रहे हो।
इसके बाद भिवाड़ी और नॉएडा जैसे crime capitals में भी रही। इन खबरों में छाए रहने वाले शेहरो से जब भी चंद्रपुर लौटती तो एक सुकून सा मिलता। ऐसा लगता जैसे किसी गटर से निकल कर गंगा किनारे आ गयी हूँ। और गंगा का किनारा तो मैला हो ही नहीं सकता।
पर 32 सालो तक जिन जगहों पर नहीं गयी थी। इस साल उन जगहों के बारे में लिखने की उत्सुकता मुझे वहा ले गयी। इसी सन्दर्भ में अपने इस सुरक्षित शहर के एक अनाथ आश्रम में जाना हुआ। वहा की संचालिका को आने में वक़्त था तो वहा के बच्चों के साथ खेलने लगी। सारी लड़कियां थी। हँसती खेलती बिलकुल भोली भाली लडकियां। छोटा सा खेल था पर उनके ठहाकों की गूंज से लग रहा था मानो उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो।
मैंने सबका नाम पूछा। सबसे हाथ मिलाया। और ढेर सारी हंसी लेकर संचालिका से मिलने गयी।
संचालिका ने सब बच्चों के बारे में बताया। ये भी बताया की कौनसी लडकिया दत्तक दी जा सकती है। जिन प्यारी सी बच्चियो के साथ मैं अभी अभी खिलखिलाकर आई थी, पता चला उनमे से सबसे प्यारी बच्ची दत्तक नहीं दी जा सकती। कारण पूछने पर पता चला की उसके माँ बाप है। बात समझ ही नहीं आई की माँ बाप के रहते हुए 3 साल की दिव्या (नाम बदला हुआ) अनाथ आश्रम में क्या कर रही है?

"उसका बलत्कार हुआ है"
संचालिका के ये शब्द मानो किसी तीर की तरह मुझे चुभे...एक ऐसा तीर जिसके चुभने से मैं अपने शहर के प्रति भरोसे के जिस आसमान पर बैठी थी वहा से सीधा धरती पे आ गिरी!!!
दिव्या का पिता शराबी है और माँ मनोरोगी । दोनों ही भीख मांगकर गुज़ारा करते है और सड़क पर ही सोते है। ऐसे में इस बात की कोई गरंटी नहीं है की दुबारा इस लड़की के साथ ऐसा नहीं होगा। इसलिए पुलिस उसे यहाँ छोड़ गयी थी।
मैं दिव्या से दुबारा मिली...कई बार मिली... वह वैसी ही निष्पाप थी...उतनी ही प्यारी और भोली... पर मैं अचानक बदल गयी। मेरा शहर मेरे लिए हमेशा के लिए बदल गया।
अगले दिन मुझे एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सोन्डो जाना था। जिस शहर में मैं 32 साल तक अकेले बिना डरे घूमती रही उसी शहर से टैक्सी में अकेले जाने में मुझे खौफ सा आया।
दिव्या से आखरी बार मिलकर घर वापस जाते हुए रास्ते से गुज़र रहा मेरे शहर का हर शख्स अपराधी सा लगा.....

Friday, July 3, 2015

Daadi ki Kahaani


मेरी दादी तभी गुज़र गयी जब मैं सिर्फ दस साल की थी। पर उनकी सुनाई कहानियाँ मुझे अब तक याद है। उनमे से एक किस्सा कुछ इस प्रकार था।
एक बार एक सामाजिक कार्यकर्त्ता एक नए मोहल्ले में रहने आई। उनके पड़ोस वाले घर और उनके घर के बीच एक बहोत ऊँची दिवार थी सो कई दिन गुज़र जाने के बाद भी वो अपने पड़ोसियों को कभी देख नहीं पायी थी। पर रोज़ सुबह जब वे चाय का कप और अखबार हाथ में लिए अपने बरामदे में बैठती तो पड़ोस से ज़ोर ज़ोर से गालियो की आवाज़ आती।
जिज्ञासा वश् समाजसेवी महिला ने दिवार पर कान लगाकर सुना तो समझ आया की रोज़ सुबह पड़ोस में रहने वाली बहु आँगन में झाड़ू लगाती है और वही बैठी उसकी सांस उसे गालियाँ देती रहती है। समाजसेवी महिला को ये सुन बड़ा क्रोध आया। पर उन्होंने सोचा की वे कुछ दिन तक और देखे की क्या होता है। पर ये तो रोज़ का किस्सा था। एक तरफ बहु के झाड़ू लगाने की आवाज़ और दूसरी तरफ सांस का ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना "बहु तेरे सत्यानाश हो....बहु तू नर्क में जाये...हाय मेरी फूटी किस्मत जो तुझे घर ले आई" ...वैगारह वैगारह।
समाज सेवी महिला से अब रहा न गया। उसने सोचा की ये बहु कितनी सभ्य और शालीन महिला है की सांस के इतनी गालिया देने पर भी बिलकुल चुपचाप झाड़ू लगाती रहती है। आखिरकार एक दिन समाजसेवी महिला एक सीढ़ी लेकर आई और उस पर चढ़कर दिवार के उस तरफ देखने लगी। पर जो उसने देखा उससे उसकी सिट्टी पिट्टी गुल हो गयी।पड़ोस वाली सांस अपाहिज थी और बरामदे में बैठे बैठे पापड़ बेल रही होती थी। बहु झाड़ू लगाते लगाते बीच बीच में उसे झाड़ू उठाकर मारने के इशारे करती तो कभी पापड़ पर धुल उड़ा देती। जब जब वो ऐसा करती सांस उसे गालियां देती।
इस कहानी से दादी ने हमें ये सीख दी की कभी किसीकी सुनी सुनाई बात पर विश्वास न करे। और बिना सच्चाई जाने किसी के बारे में कोई धारना भी न बनाये।
पर हमारे देश में अक्सर यही होता आया है। हम by default महिलाओ को अबला और भोला ही समझते है।हाल ही में खबर आई की अत्यंत सुसंस्कारी अलोक नाथ जी ने सामाजिक कार्यकर्त्ता कविता कृष्णन जी को 'bitch' कह डाला। और जैसा की हमारे देश के संस्कार है की यदि आप महिला है और किसी पुरुष ने आपको गाली दी तो आप बेझिझक शोर मचा सकती है, चिल्ला सकती है, उस पुरुष की (माफ़ कीजियेगा) माँ बहन कर सकती है। ओपन लेटर्स लिख सकती है। माफ़ी मंगवा सकती है। जी हाँ आपको भारतीय नारी होने की वजह से ये सारी सहूलियते मिली हुई है। आपके आंसू देखके आपकी कहानी छापने आये रिपोर्टर आपसे भूल के भी ये नहीं पूछेंगे की 'माताजी, बहनजी गाली देने जैसा क्या आपने कोई कार्य किया था?"।
पर यदि आप इसी महान देश के एक पुरुष नागरिक है तो आप चाहे प्रधान मंत्री जैसे आदरणीय पद पर भी हो तब भी आपको कोई भी महिला नागरिक "#LameDuckPM" अर्थात "एक नंबर का आलसी" कह सकती है। अरे तो क्या हुआ की कुर्सी संभालने के बाद से आपने एक भी छुट्टी नहीं ली। ना!! हमारे देश की महिलाओ को पूरा अधिकार है आपके लिए किसी भी तरह की भाषा का उपयोग करने का..समझे!!
अच्छा हाँ हमारे यहाँ की महिलाये आपको #SelfieobsessedPM भी बोल सकती है। इसमें बुरा मानने वाली कोई बात नहीं है। आपको सिर्फ इतना याद होना चाहिए की आपको महिलाओं की #respect करनी है। चाहे वो जूता धोकर आपको सरेआम मारे पर आप उनका आदर करते रहे।
ये सारा बवाल हमारे माननीय प्रधान मंत्री जी के मन की बात से शुरू हुआ था। हरयाणा के बीबीपुर जिल्हे के पंचायत श्री सुनील जागलान की तारीफ करते हुए मोदी जी ने उनके चलाये #SelfieWithDaughter के अभियान को देशव्यापी सफलता देनी चाही। इस छोटे सरल और पवित्र अभियान को बेवजह Snoopgate से जोड़ना कहा तक सही था?
हम सब जानते है की गणेशोत्सव पहले सिर्फ घरो में मनाया जाता था।पर स्वराज पाने के लिए लोगो को एकत्रित करना ज़रूरी था और इसलिए माननीय लोकमान्य तिलक जी ने इस उत्सव को सार्वजानिक बनाया।एक देश को चलाने के लिए ...किसी मुहीम को चलने के लिए... उस देश की जनता का एकत्रित होना अनिवार्य है। उनमे उस मुहीम के प्रति जागरूकता तथा सकारकत्मक्ता का होना बेहद ज़रूरी है। #SelfieWithDaughter शायद वैसी ही एक कोशिश थी जिसे देश में ही नहीं विदेश में भी सराहा गया। परंतु कुछ लोगों की नकारात्मक सोच ने इसे एक भद्दा मज़ाक बना दिया।
कविता जी! श्रुति जी! मैं भी उन सब लोगो का पुरज़ोर विरोध करती हूँ जिन्हें मर्यादा में रहकर बात करना नहीं आता। पर मर्यादा किसी लिंग विशेष की ज़िम्मेदारी न मानी जाये तो अच्छा!
अंत में दादी की कहानी के अनुसार आप सब लोगो से विनती है की ये स्वयं तय करे की गाली देती सांस गलत थी या झाड़ू दिखाती बहु???
मानबी कटोच
Published on Mind The News (www.mindthenews.com)

http://www.mindthenews.com/reply-to-shruti-seths-open-letter/