Friday, April 24, 2015

Rudaali!

कई साल पहले एक पिक्चर देखी थी.... 'रुदाली ' . शायद कुछ अवार्ड्स वैगेरह भी मिले थे उसे।  कहानी उस  वक़्त की थी जब बड़े बड़े ज़मींदार घर के किसी बुजुर्ग के मर जाने पर किराये पर रुदाली(रोने वाले ) मंगवाते थे क्यूंकि स्वयं उन्हें उस बुजुर्ग के मरने  का कोई दुःख नहीं होता था और ज़ाहिर है दुःख न होने के कारण रोना भी नहीं आता था।  नायिका (डिंपल कपाड़िया ) के घर में पीढ़ियों से रुदाली बनकर पैसे कमाने का चलन था।  नायिका की माँ (राखी ) तो जानी मानी रुदाली हुआ करती थी। पर नायिका की आँखों में चाहकर भी कभी आंसू नहीं आते थे।  बड़ी बड़ी मुसीबते आई पर नायिका कभी नहीं रोई। पर अंत में अपना पेट पालने के  लिए वो रुदाली बन जाती है.... फूट फूट कर रोती है।
ऐसा ही है भइ....  कई बार अपना पेट पालने के लिए रोना आये न आये.... रुदाली बनना पड़ता है।  हाँ डिंपल कपाड़िया जैसी एक्टिंग की अपेक्षा आप हर किसीसे तो नहीं न कर सकते।  

Monday, April 20, 2015

Tum Chahti ho.....



तुम चाहती हो तुम्हे कम कपड़े पहनने की आज़ादी हो...
हम चाहती है हमारे पास बस तन ढांकने  जितनी खादी हो...

तुम चाहती हो, तुम वज़न बढ़ाना चाहो या घटाना, इस पर कोई ज़ोर ना हो...
हम चाहती है, अपने बच्चे को खाना ना दे सके, ऐसी कोई भोर ना हो..

तुम चाहती हो पूरी आज़ादी यौन संबंध रखने की..
हमे उम्मीद है किसी दिन अपना शरीर बेचे बगैर रोटी का स्वाद चखने की

तुम चाहती हो घर देर से आना बिना सवालो जवाब के..
हम जैसो के लिए घर जाना ही है ख़यालो ख्वाब से...

तुम आज़ाद हो...फिर भी चाहती हो आज़ादी को अपने रूप मे ढालना
हम क़ैद है... मुश्किल है इन दलालो के चंगुल से निकलना

तुम कुछ भी कह लो फिर भी लोग आरज़ू रखते है तुम्हारी..
हम कुछ नही कहती...फिर भी बाज़ारो मे आबरू बिकती है हमारी...

क्यूँ ना मैं और तुम मिलकर आज़ादी की एक नयी परिभाषा बनाए..
मर्द हो चाहे औरत...मर्यादा सबकी हो पर कोई किसी की इस मर्यादित आज़ादी को न ठेस पहुचाए। 


Friday, April 17, 2015

विजय माल्या के दुःख में शामिल होते हुए .....

दादा की एक पुरानी स्कूटर हुआ करती थी, बजाज की, हल्के पीले रंग की. दूर से ही पहचान लिए जाते थेे दादा उस स्कूटर की कृपा से।  जब कुछ ज़्यादा खटारी हो गयी तो  बेचने का विचार आया।  लोगों ने सुझाव दिया की किसी मेकॅनिक को बेच दे, जो उसके पुरज़ो को अलग अलग करके बेच देगा।  बाबा इस बात पे सहमत ना हुए और कही से स्कूटर को ठेलकर चलाने के लिए तय्यार एक ग्राहक ढूंड ही लाए. तब बाबा या दादा की स्कूटर के प्रति उस भावना को समझ  नही पाई थी।  पर कुछ वर्षो बाद मेरी 'बजाज सन्नी' का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ। गिरा गिराकर इंजिन  तक तोड़ डाला था मैने उसका।  बेचने की बारी आई तो वही बस एक मेकॅनिक और रद्दी वाले ही आगे आए खरीदने।  मेकॅनिकल इंजिनियरिंग की थी. 4000 रुपये की नौकरी थी. हॉस्टिल का किराया बकाया था।  घरवालो से मांगती तो घर वापस बुला ली जाती।  सो चढ़ा दी बलि अपने आज़ादी के एक मात्र वाहक बेचारे 'बजाज सन्नी' की ।  बहोत दुख हुआ।  बड़ा  ग़रीब ग़रीब सा फील हुआ।
 उस दिन मेरी सन्नी को रद्दी वाले को ना बेचती तो शायद बाकी दुनिया की तरह मैं भी विजय माल्या  का मज़ाक उड़ा रही होती . पर विजय माल्या  जी आज मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है. बात चाहे ग़रीब के स्कूटर या सन्नी की हो या अमीर के हवाई जहाज़ की... रद्दी मे बेचनी पड़ जाये तो ग़रीब ग़रीब सा फील होता ही है. चिंता ना करे ..कुछ सालो बाद अब मैने होंडा एक्टिवा खरीद ली है. आशा करती हू आप भी एक बेहतर हवाई जहाज़ जल्द खरीद लेंगे.
शुभकामनाओ के साथ
आपके दुख मे शामिल,
मानबी

Thursday, April 16, 2015

Kitaabi Duniya!!

किताबी दुनिया.... हसीन...तरीन...
कभी सवाल ना पूछने वाली..
कभी तस्वीर ना माँगने वाली...
आप चाहे मेट्रिक पास हो, चाहे P.H.D.....
चाहे काले भद्दे से नाक वाले , चाहे खूबसूरत आँखो वाले ..…
आप बेझिझक इस किताबी दुनिया मे रह सकते है।
किताबे बोलती नही...पर आपको यदि उसकी किसी कहानी से प्यार हो जाए तो आप बेझिझक बोल सकते है। मन किया तो रात भर सीने  से लगाकर सो सकते है. किताबे लांछन नही लगाती..... शिकायत नही करती की इस तरह सीने से लगाने का आपका क्या मतलब था??
काश हमारी असल दुनिया भी ऐसी ही होती...बिल्कुल किताबी दुनिया की तरह...
काश यहा रहने वाले लोग इन किताबो की तरह होते.. जो ना सवाल पूछते... ना तस्वीर माँगते...

Wednesday, April 15, 2015

 आम्बेडकर जयंती.... 'नयी सड़क'... क्लास और कास्ट का फर्क



कल आम्बेडकर जयंती थी।  देश भर में दलितों के हक़ के विषय में बाते  की गयी।  रविश कुमार की  'नयी सड़क' और ndtv के 'प्राइम टाइम' की तरफ, देश के कई और देसी लोगो की भाँती, मेरा भी खास झुकाव है। प्राइम टाइम में कल  रविश जी ने, नितिन के कॅमेरे से आम्बेडकर जयंती का जश्न दिखाया।  शैनन नामक पत्रिकारिता की छात्रा के हाथो में iphone  और  आँखों में आँसू दिखाए।  एक महिला को आंबेडकर जी की तस्वीर खरीदते हुए दिखाया। रविश जी के पूछने पर महिला ने बताया की एक car में आलरेडी ये तस्वीर है , अभी दूसरी कार के लिए ले रही रही है। आज 'नयी सड़क' पर देखा तो शैनन की भावुक कहानी थी।

इसी तरह आमिर खान के 'सत्यमेव जयते' की भी मैं फैन रही हु।  जब पिछले सीजन के एक एपिसोड के विज्ञापन में आमिर ने कहा की वे निचली जाती के बारे में बात करेंगे तो मैंने प्रोग्राम से कुछ उम्मीदे बाँध ली।  जब एपिसोड आया तो उसमे भी केवल दलितों पर अत्याचार और उनके संघर्ष की कहानी  थी। उसके 
बाद की कहानी कही नहीं थी...

अभी कुछ समय पहले प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने देश के फलते फूलते लोगो से अपील की, कि वो अपना एक हक़ अपने कम फलते फूलते भाईयो के लिए त्याग दे।  सुनकर ख़ुशी हुई। पर पता चला प्रधानमंत्री जी तो बस एलपीजी में सब्सिडी की बात कर रहे है।  
काश स्वेच्छा से ये फलता फूलता वर्ग एक और हक़ छोड़ देता तो शायद देश में समानता की कुछ गुंजाइश बनती।

आज मेरी घरेलु मदतगार (maid ) अपनी बेटी को साथ लेकर आई।  सुबह  सुबह नींद से जागते ही खेलने के लिए किसी को पाकर मेरी बच्ची खूब खुश हुई।  दोनों ने साथ बैठ नाश्ता किया , T.V  देखा और खूब खेले।  वेणी को सिर्फ तमिल आती थी और मेरी बेटी मिष्टी को हिंदी, अंग्रेजी और बंगाली। सो भाषा का थोड़ा अंतर रहा पर कुछ देर तक।  थोड़ी ही देर में दोनों ऐसे घुल मिल गयी जैसे वर्षो से जानती हो एक दूसरे को। 
मैं नहीं जानती की वेणी की जाती क्या है।  वेणी की माँ को मैंने बिना जाती पूछे ही नौकरी पर रखा था।  पर यदि वो सरकारी नौकरी मांगने जाती तो जाती पूछी जाती, वर्ण पूछा जाता।  और संभवतः उची जाती का होने की वजह से नौकरी से वंचित ही रखा जाता।
मेरा बचपन भी कुछ इसी तरह गुज़रा।  कॉलोनी के सारे बच्चे किसी न किसी के आँगन में रोज़  खेलते मिलते।  किसी की  क्या ज़ात थी ....  अब तक नहीं पता।  माँ बाबा ने न  कभी किसी के  साथ खेलने से रोका, न किसीका कुछ दिया खाने से और  न ही किसीके घर जाने से।  किसीकी कास्ट का  पता नहीं होता था , पर हाँ 'क्लास' का पता ज़रूर हो जाता था।  कभी किसी के पहनावे से तो कभी बड़ो के व्यवहार से। गुड़िया के पापा अफसर है और मेरे बाबा क्लर्क , ये फर्क तो बचपन में  खेल खेल में भी महसूस कर लिया था मैंने

अब शैनन के दुःख के साथ सहानुभूति रखते हुए ये किस्सा बताती हु जहाँ से मुझे कास्ट का ज्ञान हुआ।

बारवी में ठीक ठाक ही परसेंटेज  आये थे।  उन दिनों कोई एंट्रेंस नहीं होती थी इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए।  बारवी के नम्बरो के आधार पर एडमिशन होती थी।  बाबा का सपना था की उनके दोनों बच्चे इंजीनियर बने। दादा बन चुके थे और अब मेरी बारी थीं। 
नागपुर के V.R.C  में बैठे, मैं अपने नम्बर के इंतज़ार में थी।  तीन लोगो को एक साथ बुलाया गया।  स्क्रीन पर जनरल केटेगरी में सिर्फ मैकेनिकल और सिविल ही नज़र आ रहे थे।  दादा ने हिदायत देकर भेजा की मैकेनिकल ले लु।  

बातूनी तो मैं हूँ ही इसलिए मुझसे आगे जो लड़की खड़ी थी उस से युही पूछ लिया की "तुम सिविल लोगी या मैकेनिकल?"   जवाब आया, "मैं तो कम्प्यूटर्स लुंगी " . मुझे  लगा शायद उससे स्क्रीन देखने  में कोई चूक हुई है।  मैंने उसे बताया की " अरे तुम कौनसे खयालो में हो? नज़र उठाकर  देखो हमारे पर्सेंटेज के लिए सिर्फ सिविल और मैकेनिकल ही बचता है।"  वो हसी , बोली, "तुम जनरल केटेगरी  की हो क्या ? मैं तो S.T  हुँ।  मुझे तो L.E.T में इलेक्ट्रॉनिक्स  भी मिल रहा था पर मुझे कम्प्यूटर्स ही चाहिए :) " 

 फिर मैंने उससे उसके  परसेंटेज पूछे।  ओवरआल मुझसे २ परसेंट कम  और P.C.M  में मुझसे ५ पर्सेंट कम। सुनकर अनायास ही घृणा होने लगी उससे।
"हमारी तो फीस भी माफ़ हो जाती है , मेरी मम्मी प्राइमरी टीचर है न :) " - उसने कहा।
"wow  … और पापा? पापा क्या करते है तुम्हारे ? - मैंने  व्यंग में पूछा।
" डॉक्टर है।  Dr. वाघमारे (नाम बदला हुआ ) का नाम नहीं सुना ? जिनका अशोक चौक पर बड़ा सा हॉस्पिटल है , वो मेरे पापा है" - उसने उत्तर दिया।

उसका नंबर आ गया।  उसने नागपुर के एक  कॉलेज   में कम्प्यूटर्स ले लिया। ज़्यादा  नंबर होते हुए भी मेरे पास मैकेनिकल लेने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

मेरे पिता क्लर्क थे। पर वर्ण से क्षत्रीय।  क्लास का फर्क मैंने बचपन से सीखा था। ये वो किस्सा था जिसने मुझे कास्ट का फर्क सिखाया। 

Sunday, April 12, 2015

Darti hu...kahi tum mujhe kho na do...

 डरती हूं...कही तुम मुझे खो ना दोह...
हर सुबह निकल जाते हो तुम रोटी कमाने...
हां जानती हु इसके बगैर  गुजारा भी तो नही...
जो ब्रॅण्डेड गॉगल्स और जूते तुम्हे पसंद आते है...
उन सब के लिये तुम्हारा यु सुबह सुबह निकल जाना तो वाजीब है..

दिन मे कइ बार तुम्हारी याद आती है..
कभी कोई  गजल गुणगुणाते..
तो कभी कोई कहानी लिखते लिखते...
उँग्लिया तुम्हारे नंबर को दबाने ही लगती है की..
फिर याद आता है आज तुम्हारी कोई important meeting है..
नही...कॉल करके कही डिस्टर्ब ना कर दु तुम्हे...

कभी कभी तुम्हारा मन होता है तो 6:30 ही निकल आते हो..
मैं  रोज सोचती हु शायद आज वो दिन हो..
फिर जब 9:30 तक नाही आते तो पूछती हु.."क्या हुआ....निकले नही अभी?"
जवाब आता है "नही...काम है अभी"..
और तुम फिर रोटी कामाने लागते हो....

प्यार इतना है की उमर गज़ार दु ..चाहे तुम वक्त दो..ना दो
पर डरती हु...उमर  गुजरने से पहले ही ..कही तुम मुझे खो ना दो...

Saturday, April 11, 2015

Tum mujhpar koi nazm likho to batana..

सुनो...तुम मुझपर कोई नज़्म लिखो तो बताना..
वो जो तुमने 'मेघा' के लिए लिखी थी
जो आजतक तुम्हारे ब्लॉग पर तीसरे पन्ने पर नज़र आता है..
जिसे फ़ेसबुक पर 115 लाइक्स मिले थे...
कुछ वैसा..
हां कुछ वैसी ही नज़्म मुझपर जब भी लिखो तो बताना..
जानते हो.. 'मेघा' सोचती है तुम उसे चाहते ही नही थे..
तुम भी तो अजब थे..कभी उस से कुछ कहते ही नही थे..
काश वो नज़्म तुम फ़ेसबुक पर ना शेयर करते..
काश उसके नज़मो से भरी वो किताब उसके हाथो मे दे धरते...

खैर!!!
सुनो...तुम मुझपर कोई नज़्म लिखो तो बताना...