मुझे उसका साफ़, सफेद तना बहुत अच्छा लगता था। भीष्म पितामह जैसी vibes थी कुछ उसमें।
कभी-कभी उसकी बड़ी-बड़ी डालियां सूखकर गिर जाती थीं। कभी किसी को भी चोट तो नहीं लगी, पर ये ख़तरा हमेशा बना रहता था।
पर मुझे तो इसकी डालियों का गिरना भी बहुत अच्छा लगता था। क्योंकि उनके साथ कुछ नए पत्ते भी गिरते थे, कच्चे हरे रंग के, बिल्कुल नवजात शिशु की तरह स्वच्छ और उन्हीं की तरह पाक खुशबू....
पता नहीं कितने सालों से था वह वहां। लगता था हमेशा से यही खड़ा है द्वारपाल की तरह। कहा न भीष्म पितामह की तरह!
पर फिर एक दिन बिट्टू अपनी मम्मी के साथ आया। पेड़ के बगल में कुल्हाड़ी पड़ी थी। उसने पेड़ के साफ़, सफेद तने पर वार करना शुरू कर दिया।
बिट्टू के पापा बड़े ओहदे पर थे। माँ कुछ नहीं कह पाई। बिट्टू की मम्मी बीच-बीच में जैसे formality की खातिर कह देतीं- "बिट्टू नहीं करते बेटा!"
उस दिन के बाद से पेड़ सूखता चला गया। उसका साफ, सफेद तना अब कुल्हाड़ी के कई वार से छिला हुआ था। जैसे अर्जुन ने कई तीर मार दिए हों।
डालियां एक-एक कर गिरने लगीं। सेफ्टी के लिए तने से पेड़ को काटना पड़ा।
और फिर.. उसने समाधि ले ली।
उस दिन माँ कुछ कह देती तो?
मैं किसी तरह बिट्टू के हाथ से कुल्हाड़ी छीन लेती तो?
कहते हैं नीलगिरी का पेड़ 200 साल तक जी सकता है!
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