माँ कहतीं है जब मैं छोटी सी थी तब हम माउंट कारमेल कॉनवेंट स्कूल
के पास रहा करते थे. वहाँ की नन्स को देखकर और वहाँ रही वेल ड्रेस्ड, यूनिफॉर्म और जूते मोज़े पहनी
लड़कियों को देख उनका भी मन करता था की वे मुझे भी वहाँ भेजे. पर ज़्यादा फीस होने
की वजह से और बाबा की साधारण सी नौकरी होने के कारण उन्हे लगता था की मेरा अड्मिशन
वहाँ नही हो पाएगा. जब मैं तीन साल की हुई तो बाबा को डब्ल्यू. सी. एल मे नौकरी मिल
गयी. और हमे रहनेको नया क्वॉर्टर.
पड़ोस में एक शोभा दीदी रहती थे जो संयोगवश माउंट कार्मेल स्कूल में ही पढ़ती थी। माँ से उनकी दोस्ती हुई तो उन्होंने मुझे अपने ही स्कूल में भर्ती कराने का सुझाव दे डाला। माँ के लिए तो ये " नेकी और पूछ पूछ " हो गयी। शोभा दीदी मेरे लिए फॉर्म ले आये , कुछ दिनों में मेरा और माँ - बाबा का स्कूल वालो से साक्षात्कार हुआ, और फिर मैं भी वेल ड्रेस्ड होकर , यूनिफार्म और जूता मोज़ा पहनकर माउंट कार्मेल कॉन्वेंट स्कूल में जाने लगी।
माउन्ट कार्मेल स्कूल और उसमे पढ़ रहे बच्चे, दोनों ही मुझसे बहोत अलग थे। हिन्दी और अंग्रेजी विषयो के अलावा मुझे और कुछ पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। वो भी इसलिए क्योंकि उनमे जीवन से जुडी कहानियाँ होती थी। नतीजतन सिर्फ इन्ही दोनों विषयो में मेरे अच्छे नंबर आते , बाकी विषयो में तो माशाअल्लाह से पास होने में भी जैसे मेरी जान जाती थी। पढ़ाई से मेरा कुछ बैर सा था, और पढाई के अलावा जो कुछ था उनमे घरवालो को कुछ दिलचस्प नहीं लगता। तो कुल मिलाके मैं स्कूल में लूज़र् ही रहि. इस वजह से ज़्यादा दोस्त भी नहीं बन पाये। कान्वेंट में जा रहे बच्चो को घर से हिदायत मिली होती है कि वो मुझ जैसे लूज़र्स से दूर रहे। हाँ ! कभी कोई मुझसे भी बड़ा लूज़र मिल जाता तो उससे मेरी दोस्ती हो जाती। पर फिर मेरे माँ बाबा मुझे उससे दूर रहने की हिदायत देने लगते :) सो ये माँ बाप के स्कूल तक आज्ञाकारी रहने वाले बच्चे मुझसे दूर ही रहते। इन आज्ञाकारी बच्चो में से एक गुड़ियाँ भी थी। पर एक ही कॉलोनी में रहने की वजह से उसे मुझसे थोड़ी बहोत दोस्ती रखनी ही पड़ती। पर उसके मुझसे जुड़े रहने का ये बहाना भी तब समाप्त कर दिया गया जब पाँचवीं कक्षा में एक बार हिस्ट्री के टेस्ट में फेल हो जाने पे मैं अपनी एक और लूज़र दोस्त के साथ स्कूल से कही भाग गयी थी। आज भी कभी मैं उस वाकए के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि काश उस दिन ये याद रहता की आज तो फ्राइडे है। उन दिनों W .C .L में शुक्रवार छुट्टी होती। मैं फेल होने पर माँ बाबा की डांट से ज़्यादा लंच टाइम पर हमारे घर आनेवाली आंटियो के तंज़ो से घबराकर थी।
स्कूल ख़त्म हुआ। आठवी कक्षा में संयोगवश कुछ ऐसे दोस्त मिले जिनकी संगती के कारण मेरे रिजल्ट्स में थोड़ा बहोत सुधार आया। दसवी में पछत्तर पर्सेंट मिले तो घरवाले गद्गद हो गए। आज का पता नहीं पर उन दिनों एक छात्र को कौनसा चाहिए ये उसकी रूचि से नहीं बल्कि उसके दसवी में आये नम्बरो से निर्धारित किया जाया था। सो डिस्टिंक्शन आने पर साइंस के अलावा कोई और विषय चुनने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।
हमेशा फेल होती बेटी के पछत्तर पर्सेंट आ जाने से माँ बाप के सपनो को जैसे पंख से लग जाते है। बारवी में मुझे न चाहते हुए भी बायोलॉजी और मैथ्स दोनों लेने पड़े। क्योकि माँ बाबा के पंख लगे सपनो को लगने लगा था की अगर मैं इंजीनियरिंग में न जा पायी तो बायोलॉजी लेने से मेडिकल में तो जा सकुंगी। बायोलॉजी मेरे भागते हुए पैरो में ज़ंज़ीर का काम करती रही।
खैर किसी तरह बारवी पास की। रिजल्ट बहोत ख़ास नहीं था। माँ चाहती थी मैं इंजीनियरिंग करू। क्यों? कह नहीं सकती। शायद वे मुझे अपने से अलग ज़िन्दगी जीते देखना थी। बाबा भी मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे क्योकि ऐसा करने से चंद्रपुर के प्रवासी बंगाली परिवारो में बाबा ऐसे पहले शक्स होते जिनके दोनों बच्चे इंजीनियर होते। दादा चंद्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर थे इसलिए मेरे उनके कॉलेज में पढ़ने से उनके लिए भी मुझ पर नज़र रखना आसान होता। बची मैं , तो सपनो की भूलभुलैया में मैं इतना उलझ गयी की इस बात पर मैंने ही नहीं दिया की बारवी में भी मेरे सबसे ज़्यादा नंबर हिंदी और अंग्रेजी में ही मिले है।
इंजीनियरिंग के चार साल किसी सुन्दर सपने बिते. मैंने खूब मेहनत की। माँ बाबा को थोड़ा बहोत फक्र भी हुआ। साहित्य, कहानियाँ , शेरो शायरी से नाता टूट सा गया। इंजीनियरिंग की डिग्री मिली। माँ, बाबा, दादा का सपना पूरा हुआ। कुछ साल मैंने नौकरी भी की। आज़ाद रही। फिर शादी हुई। एक अच्छा जीवनसाथी मिला जिसने हर मोड़ पे मेरा साथ दिया।
शादी के बाद भी ज़िन्दगी बिलकुल वैसे ही चल रही थी जैसे पहले थी। बिंदास, खुशहाल! मैं और मेरे पति दोनों नौकरी करते थे। सुबह निकलते और रात में लौटकर एक दूसरे को दिनभर के किस्से सुनाते। संडे को सुबह सुबह जाते। कोई फिल्म देखते और बहार से खाना खाकर लौटते। कई बार मुझे लगता की इससे अच्छी ज़िन्दगी हो ही नहीं सकती।
फिर एक दिन मेरी सांस बीमार पड़ी और उनकी देखभाल करने के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी। दो महीने उनकी सेवा करने के बाद दुबारा काम करना शुरू किया तो पता चला की मैं गर्भवती हु। मैंने फिर नौकरी छोड़ दी।
मेरी बच्ची आज चार साल की है। इस बीच मुझे कई नौकरियों के ऑफर्स आये पर मैं नहीं कर पायी। पिछले पांच सालो से मैं घर का और अपनी बच्ची का ध्यान रखती हु. ससुराल जाती हु तो उन सबका काम करती हु। कोई चीज़ लेने का मन करता है तो बहोत संकोच के साथ अपने से मांगती हु या फिर कई बार संकोच के कारण चुप ही रह जाती हु।
कल मेरे पति ने मुझसे शहर के सबसे अच्छे स्कूल से हमारी बेटी के लिए एडमिशन फॉर्म लाने को कहा। मुझे भी अपनी बेटी को उस स्कूल में वेल ड्रेस्ड होकर , यूनिफार्म और जूता मोज़ा पहनकर जाते हुए देखना है। मैं भी चाहती हु की वो कुछ ऐसा पढ़े या करे जिससे मैं उसे अपने अलग ज़िन्दगी जीते हुए देख सकु।
स्कूल ख़त्म हुआ। आठवी कक्षा में संयोगवश कुछ ऐसे दोस्त मिले जिनकी संगती के कारण मेरे रिजल्ट्स में थोड़ा बहोत सुधार आया। दसवी में पछत्तर पर्सेंट मिले तो घरवाले गद्गद हो गए। आज का पता नहीं पर उन दिनों एक छात्र को कौनसा चाहिए ये उसकी रूचि से नहीं बल्कि उसके दसवी में आये नम्बरो से निर्धारित किया जाया था। सो डिस्टिंक्शन आने पर साइंस के अलावा कोई और विषय चुनने का सवाल ही पैदा नहीं होता था।
हमेशा फेल होती बेटी के पछत्तर पर्सेंट आ जाने से माँ बाप के सपनो को जैसे पंख से लग जाते है। बारवी में मुझे न चाहते हुए भी बायोलॉजी और मैथ्स दोनों लेने पड़े। क्योकि माँ बाबा के पंख लगे सपनो को लगने लगा था की अगर मैं इंजीनियरिंग में न जा पायी तो बायोलॉजी लेने से मेडिकल में तो जा सकुंगी। बायोलॉजी मेरे भागते हुए पैरो में ज़ंज़ीर का काम करती रही।
खैर किसी तरह बारवी पास की। रिजल्ट बहोत ख़ास नहीं था। माँ चाहती थी मैं इंजीनियरिंग करू। क्यों? कह नहीं सकती। शायद वे मुझे अपने से अलग ज़िन्दगी जीते देखना थी। बाबा भी मुझे इंजीनियर बनाना चाहते थे क्योकि ऐसा करने से चंद्रपुर के प्रवासी बंगाली परिवारो में बाबा ऐसे पहले शक्स होते जिनके दोनों बच्चे इंजीनियर होते। दादा चंद्रपुर इंजीनियरिंग कॉलेज में लेक्चरर थे इसलिए मेरे उनके कॉलेज में पढ़ने से उनके लिए भी मुझ पर नज़र रखना आसान होता। बची मैं , तो सपनो की भूलभुलैया में मैं इतना उलझ गयी की इस बात पर मैंने ही नहीं दिया की बारवी में भी मेरे सबसे ज़्यादा नंबर हिंदी और अंग्रेजी में ही मिले है।
इंजीनियरिंग के चार साल किसी सुन्दर सपने बिते. मैंने खूब मेहनत की। माँ बाबा को थोड़ा बहोत फक्र भी हुआ। साहित्य, कहानियाँ , शेरो शायरी से नाता टूट सा गया। इंजीनियरिंग की डिग्री मिली। माँ, बाबा, दादा का सपना पूरा हुआ। कुछ साल मैंने नौकरी भी की। आज़ाद रही। फिर शादी हुई। एक अच्छा जीवनसाथी मिला जिसने हर मोड़ पे मेरा साथ दिया।
शादी के बाद भी ज़िन्दगी बिलकुल वैसे ही चल रही थी जैसे पहले थी। बिंदास, खुशहाल! मैं और मेरे पति दोनों नौकरी करते थे। सुबह निकलते और रात में लौटकर एक दूसरे को दिनभर के किस्से सुनाते। संडे को सुबह सुबह जाते। कोई फिल्म देखते और बहार से खाना खाकर लौटते। कई बार मुझे लगता की इससे अच्छी ज़िन्दगी हो ही नहीं सकती।
फिर एक दिन मेरी सांस बीमार पड़ी और उनकी देखभाल करने के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी। दो महीने उनकी सेवा करने के बाद दुबारा काम करना शुरू किया तो पता चला की मैं गर्भवती हु। मैंने फिर नौकरी छोड़ दी।
मेरी बच्ची आज चार साल की है। इस बीच मुझे कई नौकरियों के ऑफर्स आये पर मैं नहीं कर पायी। पिछले पांच सालो से मैं घर का और अपनी बच्ची का ध्यान रखती हु. ससुराल जाती हु तो उन सबका काम करती हु। कोई चीज़ लेने का मन करता है तो बहोत संकोच के साथ अपने से मांगती हु या फिर कई बार संकोच के कारण चुप ही रह जाती हु।
कल मेरे पति ने मुझसे शहर के सबसे अच्छे स्कूल से हमारी बेटी के लिए एडमिशन फॉर्म लाने को कहा। मुझे भी अपनी बेटी को उस स्कूल में वेल ड्रेस्ड होकर , यूनिफार्म और जूता मोज़ा पहनकर जाते हुए देखना है। मैं भी चाहती हु की वो कुछ ऐसा पढ़े या करे जिससे मैं उसे अपने अलग ज़िन्दगी जीते हुए देख सकु।