मुझे नहीं पता तुम कितने साल के हो। लोग कहते है तुम 81 के हो गए हो। अच्छा ठीक उलटा के देखु तो अब बालिग़ हुए हो।मेरे लिए तो तुम हमेशा 18 बरस के ही रहे। अब भी हो। ये तो अब हुआ की फेसबुक और ट्विटर पर जब तुम्हारा नाम ट्रेंड करने लगा तो पता चला की आज तुम्हारी सालगिरह है। वर्ना तो तुम मुझे किसी अवतार से लगते थे, जिसका जन्म नहीं हुआ, जो प्रकट हुआ हो।
कितनी अजीब बात है कि गूगल के आ जाने से अब हर किसी को ये पता है कि तुम्हारा नाम क्या है। इतने साल तुम्हे पढ़ते रहने के बाद भी मुझे तुम्हारा असली नाम नहीं मालूम हुआ। मैंने तुम्हे नाम की तरह सोचा ही कहाँ कभी। मेरे लिए तो तुम बस एक एहसास थे जिसका नाम नहीं होता। इस तरह के एहसासो को नाम मिल जाए तो कहते है वो बदनाम हो जाते है। तभी तो तुम्हे बस महसूस किया... नाम नहीं सोचा।
अच्छा नदियो में तुम्हे सरस्वती सबसे प्यारी है..है ना? तभी तो उसका मोल समझाने के लिए तुमने 'त्रिवेणी' रच डाली। लोग गंगा जमना में उलझे रहे और तुमने चुपके से सरस्वती खोज निकाली। जानते हो...मैं भी इसी आशा में छुपी रही कि एक दिन इसी तरह तुम मुझे भी खोज निकालोगे। पर हर छुपी हुई नदी सरस्वती तो नहीं होती... है ना?
बोस्की ब्याहने का वक़्त आया तो तुम उदास से लगे। बोझिल सी उन रातो को जब पश्मिनि जामा पहना रहे थे, तब मैं उन सर्द रातो के गर्म होने के इंतज़ार में बिना स्वेटर के ही चाँद देखने निकल पड़ती थी।
रावी पार की पहली कहानी पढ़ी तो यकीन हो चला कि कम-स-कम तुम्हारा मज़हब तो मेरे मज़हब से मेल खाता है। नहीं नहीं ... अब्बा से शादी की बात करने के लिए नहीं। पर यूँ ही... तुमसे कुछ भी मेल खाता मिले तो अपने आप पे फक्र सा होता था, इसीलिए।
और फिर तुमने 'परवाज़' पढ़ी । जब अब्दुल कलाम साहब का इंतकाल हुआ तब किसीने ये सुनने को कहा। तुम यकीन करो न करो पर लगा मृत्यु तभी सफल होती है जब गुलज़ार तुम्हारी ज़िन्दगी पढ़ ले।
काश तुम किसी दिन मुझे सरस्वती सी ढूंढ निकालो।
काश तुम कभी अपनी पश्मिनि रातें मुझ पर ओढ़ा दो।
काश तुम सम्पूर्ण होकर भी गुलज़ार रहो और मोहब्बत का मज़हब संभाले रखो।
काश तुम किसी दिन मेरी ज़िन्दगी पढ़ो और मेरी मौत को मुक्म्मल कर दो।
काश तुम 81 बरस और जियो और फिर भी 18 के लगते रहो।
जन्मदिन मुबाराक हो!!