देखते देखते पाँच साल हो गए सफल में रहते हुए। जब नई नई आई थी, तब रास्ता भटक जाती थी। सोबो से वापस आते हुए कभी गाला आर्या में घुस जाती थी, तो कभी सफल 1 तक पहुँच जाती थी।
अंदर जाने के बाद एहसास होता कि नहीं, ये तो अपना सफल नहीं है। हाँ! देखते ही देखते सफल कब अपना हो गया पता ही नहीं चला।
कई बार सोचती हूँ, वो क्या था जो सफल को इतना अपना बना गया?
ये किराये का मकान, जो सैंड पिट के ठीक ऊपर है? या मिष्टी का स्कूल, जो उसका फ़ेवरेट है?
यहाँ मनने वाला हर त्योहार? या यहाँ का लम्बा चौड़ा गार्डन, जैसा यहाँ की किसी और सोसाइटी में नहीं है।
लॉकडाउन के दौरान ये सब थे। पर फिर भी सफल, अपना सफल नहीं लगता था।
वही सैंड पिट के ऊपर का मकान तो था, लेकिन शाम के 5 बजते ही बच्चों की किलकारियां नहीं सुनायी देतीं। बुजुर्गों के ठहाके कानों तक नहीं पहुँचते। न लेडीज़ के गप्पे और न ही क्रिकेट का शोर।
गार्डन ज्यों का त्यों था, पर सुबह-सुबह आंटियों के 'ऊँ' के उच्चारण के और पिकनिक करते बच्चों के बगैर मानों उसकी शोभा अधुरी थी।
मिष्टी का ऑनलाइन स्कूल भी चला, पढ़ाई का कोई नुकसान न हुआ, लेकिन बस अड्डे के वो ठहाके, मम्मियों की लास्ट मिनट इंसट्रकशन्स और बस छूट जाने के डर से दौड़ते पापाओं की कमी ये ऑनलाइन क्लासेस कैसे पूरी करतीं?
त्योहारों की तरह ही हर घर में पकवान बन रहे थे। परिवार साथ था। छुट्टियों का माहौल भी। पर लॉकडाउन ने समझा दिया कि सिर्फ यही सब तो त्योहार को त्योहार नहीं बनाते। सफल में त्योहार का मतलब तो पूरे सफल परिवार का मिलना था। एक साथ खाना पीना, झूमना, नाचना, आरती करना, फोटो सेशन... वो क्या कहते हैं, यहीं तो थी यहाँ की मज्जा नी लाइफ!!!
मेरी सबसे पहली सहेली यहाँ रेनू थी। उसका मकान L block में 9th फ्लोर पर है और मेरा H block में 1st फ्लोर पर। फोन पर वैसे ही बेडरूम में बैठे-बैठे बात हो सकती है, देखने का मन हो तो वीडियो कॉल हो सकता है। लेकिन फिर भी हम अपनी अपनी बालकनियों में आकर एक दूसरे को देखते हुए फ़ोन लगाते हैं। शायद इतना भी एक दूसरे के साथ होने का एहसास दिलाता है। सफल में होने का एहसास दिलाता है, इसलिए!
कल जब मैंने रेनू से कहा कि हो सकता है ये सब अब ऐसा ही रहेगा। शायद आज से कई साल बाद हम याद करें कि, 'याद है रेनू कभी हम साथ बैठकर चाय पिया करते थे। होली पर गले मिला करते थे।'
रेनू ने झट से जवाब दिया कि अरे नहीं ऐसे सोचो कि कई साल बाद हम बातें करेंगे कि, 'याद है मानबी, वो कुछ महीने थे जब हम लॉकडाउन में थे और बस बालकनी पर खड़े खड़े फोन पे बात करते थे।'
दुआ है कि तुम्हारी ही बात सच निकले रेनू। ये लॉकडाउन बस एक याद बनकर ही रह जाए, ज़िंदगी नहीं। और हमारा सफल फिर अपना सफल बन जाए... सारा परिवार फिर साथ आ जाए।
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