न वो घर से निकलता
न मेरा बलात्कार होता।
काश लॉकडाउन पहले होता
दुकानें सारी बंद होती
तो ऐसिड कहाँ से मिलता
न मिलता, न मुझ पर फिकता,
काश लॉकडाउन पहले होता।
हवस के दरिंदे घर पर ही रहते
तो शायद मेरा देह ही न बिकता
काश लॉकडाउन पहले होता
लॉकडाउन हुआ, तो इन सबको लगा कि अब कोई बलात्कार नहीं होगा।
किसी पर ऐसिड फेंककर उसका चेहरा नहीं छीना जाएगा।
किसी लड़की की देह को मांस के लोथड़े की तरह नहीं बेचा जाएगा।
सब डरे रहेंगे।
घर में दुबके रहेंगे।
ये सब अपना दर्द भूलाकर मुस्कुराने ही वाली थीं कि किसी के चीखने की अवाज आयी... रो रो कर वो कह रही थी... "मत मार...जाने दे..."
रोज़ शराब पीकर आता है और मारता है। वो चाहती है लॉकडाउन खत्म हो और उसके घर में बैठा दरिंदा बाहर निकल जाए!
20 हज़ार करोड़ बहुत बड़ा आंकड़ा है। ये कहानी बहुत छोटी!
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