"ये अस्पताल अब क्वारंटीन सेंटर बन गया है। अब यहाँ सिर्फ कोरोना के मरीज़ रहेंगे। तुम सब लोगों को बारी बारी उनका वार्ड साफ करना होगा।" - गोलपारा सिविल अस्पताल की सुप्रिटेंडेंट ने सभी सफाई कर्मचारियों को हिदायद दी।
डरे तो सब हुए थे, कहते है रोगी का छुआ हुआ सामान भी छूने से फैल जाती है ये बिमारी- उनमें बातें होने लगी। पर तुलू का डर कुछ और ही था।
17 साल का था जब दारु पी पी कर बाप ने आखिर अपनी जान ही ले ली। मर गया तो माँ बहुत रोयी, मानों फूलों की सेज पर सोती आयी थी अब तक। मारता बहुत था, तुलू को भी और उसकी माँ को भी, पर कमा के भी तो लाता था। तुलू की माँ शायद उसी महीने दर महीने आने वाली आमदनी के बंद होने के गम से रोती थी।
तुलू 10वीं में ही था। गणित के मास्टर मोहंती का सबसे चहेता।
'आग है इस लड़के में, इंजीनियर बनके दिखयेगा' मोहंती उसके छुड़ाए सवालों का उत्तर देखकर खुद ही कहता और मुस्कुराता था। पर पेट की आग के आगे गणित की आग बुझ गयी। तुलू नौकरी की तलाश में दर दर भटकने लगा।
महीना हो गया था, कोई काम हाथ नहीं लगा था। बाप ने जो थोड़ा-बहुत बचाया था, वो उसके ही दाह संस्कार में लग गया। अब तो गुवाहाटी जाने तक का किराया नहीं बचा था।
अपनी फूटी किस्मत की कहानी तुलू अपने दोस्त केष्टो को सुना ही रहा था कि उसे एक उपाय सूझा।
'तू मेरे बाबा के अस्पताल में सफाई का काम करेगा?' उसने तपाक से पूछा।
'हाँ हाँ करूंगा। क्यों नहीं करूंगा?' तुलू ने झट से जवाब दिया।
'पर... ' केष्टो अटका
'पर क्या... अरे नहीं यार इंजीनियर बनने का सपना अब कौन देखता है। सफाई कर्मचारी भी बढ़िया है। लगवा दे यार।' तुलू मुस्कुराते हुए बोला।
'वो बात नहीं है यार। बात ये है कि नौकरी पर्ममनेंट नहीं होगी। बाबा लगवा तो देंगे, पर तन्ख्वाह नहीं मिलेगी।' केष्टो ने बहुत हिचकिचाते हुए कहा।
'तो फिर???? तन्ख्वाह के बिना काम करूंगा तो खाऊंगा क्या??' तुलू को बहुत गुस्सा आ रहा था।
'अरे खायेगा। देख वहाँ अच्छा काम करो तो डॉक्टर और मरीज़ दोनों कुछ न कुछ टिप देते हैं। बहुत तो नहीं पर गुजारे लायक मिल जाएगा। बोल, करेगा?'
तुलू ने अपनी किस्मत के लिए एक मिनट का मौन रखा और फिर बोला, 'करूंगा केष्टो.. और कोई चारा भी तो नहीं।'
अगले दिन सुबह तुलू ठीक 9 बजे अस्पताल पहुँच गया। सुप्रिटेंडेंट ने साफ-साफ कह दिया, 'देख, बिप्लप दादा के कहने पर रख रही हूँ। अपनी मर्ज़ी से आया है। बाद में कोई लफ़ड़ा नहीं मांगता मेरे को, कि पेमेंट नहीं दे रे बोलके।'
तुलू सर झुकाये, हाथ जोड़े खड़ा रहा। बिप्लप दा ने गारंटी दी, 'नहीं बोलेगा मैडम। गरीब आदमी है। थोड़ा बहुत जो आप डॉक्टर लोगों से बन पड़ता है दे दीजिएगा। मरीज़ तो देते ही हैं। पेट भरता रहेगा बेचारे का।'
सुप्रिटेंडेंट के केबिन से निकलते ही तुलू ने बिप्लब दा के पांव पकड़ लिए। बिप्लप दा ने उसे उठाया और हिदायद दी, 'मन लगाके काम करना बेटा। मैडम ज़ुबान की कड़वी हैं, पर दिल की बहुत अच्छी हैं। बड़े लोग हैं, क्या पता तेरे काम से खुश होकर तुझे पर्मनेंट कर दें।'
तुलू ने इस बात को गांठ मार ली। पेशंट चाहे उल्टी करे या शौच, तुलू ज़रा भी नाक सिकोड़े बगैर सब साफ कर देता। मरीज़ खुश होकर उसे 10-20 रुपये दे ही देते। इधर डॉक्टरों के चेंबर भी शीशे जैसा चमकाए रखता, तो वो भी उसे आते-जाते कुछ न कुछ दे देते।
सुप्रिटेंडेंट मैडम तो हर महीने की पहली तारीख को उसके हाथ में 100 रुपये का नोट रखने से कभी नहीं चूकतीं, मानों तन्ख्वाह ही दे रहीं हों। पर वो खुद बाल बच्चों वाली थीं, इससे ज़्यादा क्या देतीं।
किसी तरह महीने के कभी डेढ़ तो कभी ढाई हज़ार मिल जाते। तुलू की ठीक ठाक कट रही थी। दो जून की रोटी का गुजारा चल रहा था।
अस्पताल में तुलू को सब जानते थे। पर विभाग में कोई नहीं। उसके काम से सभी खुश थे, पर उसका नाम, काम करने वालों की फेहरिस्त में था ही नहीं।
देखते-देखते पाँच साल हो गये। तुलू अब 22 का था। माँ ने लड़की देखी तो थी, पर लड़की का बाप तुलू की 'अब गयी तब गयी' नौकरी से डरता था। आखिर जैसे तैसे बिप्लप दा ने बात संभाली और तुलू का ब्याह करा ही दिया।
अगले साल घर में नन्हा तुलू भी खेलने लगा। तुलू ने और मेहनत करनी शुरु कर दी। जब जो जहाँ से बुलाता, वो हाज़िर हो जाता, फर्श, बरतन, बाथरुम सब ऐसे साफ करता कि खड़ूस से खड़ूस मरीज़ भी कुछ पैसे दिया बिना न जा पाता।
पिछ्ले दिनों जब बरुआ की नानी अस्पताल से निकली तो सभी सफाई कर्मचरियों ने चैन की सांस ली।
'पिंड छूटा, उफ्फ़ दिन में चार-चार बार संडास करती थी बुढ़िया। ज़रा देर हो जाए ट्रे उठाने में तो गालियां बकने लगती थी। न जाने घरवाले कैसे झेलते होंगे बुढ़िया को।' - बाकी सफाई कर्मचारी आपस में कानाफूसी करते।
पर तुलू बुढ़िया से खुश था। जितनी बार संडास करती और कोई और सफाई कर्मचारी जाने को मना करता उतनी बार डॉक्टर साहब उसे भेज देते और थोड़े पैसे हाथ में रख देते।
डेंगू का मौसम आया तो चांदी ही चांदी थी, अस्पताल खचाखच भरा होता था।
पर ये महामारी! ये तो कुछ और ही थी। धीरे-धीरे मरीज़ों को वापस भेजा जाने लगा। डॉक्टर छुट्टी पर जाने लगे। एक वार्ड में सिर्फ 4 पेशंट, जिनका छुआ तौलिया भी छू लो तो बिमारी तुम्हें लग जाए।
एक-एक करके सफाई कर्मचारी भागने लगे। सब ने इस वार्ड में जाने से मना कर दिया। सुप्रिटेंडेंट की समझ में नहीं आ रहा था कि सफाई किससे करवाए।
'आपने बुलाया मैडम?' तुलू ने सुप्रिटेंडेंट के केबिन का दरवाज़ा खटखटाते हुए पूछा।
'हाँ तुलू। कोरोना वार्ड में ड्यूटी कर लोगे? वहाँ...'
'हाँ हाँ कर लूंगा मैडम' सुप्रिटेंडेंट के आगे कुछ कहने से पहले ही तुलू ने जवाब दे दिया।
अगले दिन उसे पीपीई किट दी गयी। सर से लेकर पांव तक एक प्लास्टिक के थैले के माफिक। 'अप्रैल की गर्मी में इंसान वैसे ही चूसे हुए आम के जैसा हो जाता है। इसके अंदर तो रहा सहा रस भी सूख जाएगा' - तुलू ने सोचा।
'सारा दिन पहने रहना है। खाना खाते हुए भी नहीं खोलने का। काम खत्म होने के बाद डिसइन्फेक्ट करके डिसपोज़ करने का। लिमिटेड है। वेस्ट नहीं करने का। समझा?' - सुप्रिटेंडेंट ने हिदायत दी।
'जी मैडम कर लूंगा, सब कर लूंगा'
पिछ्ले पाँच सालों में तुलू एक पल के लिए भी बिप्लब दा की कही वो बात नहीं भूला था ,'बड़े लोग हैं, क्या पता तेरे काम से खुश होकर तुझे पर्मनेंट कर दें।'
पूरे महीने वो लगा रहा। कोई कसर नहीं छोड़ी। लोग कहते रहे कि मर जाएगा। ये डेंगू मलेरिया नहीं, कोरोना है। लाखों लोग मर चुके हैं। पर तुलू लगा रहा।
चार ही पेशंट थे, कितना दे देते। उधर घर में बच्चे के दूध के लाले पड़ गये। तुलू की बीवी ने उधार मांग मांगकर गुजारा करना शुरु कर दिया, पर कब तक?
सुप्रिटेंडेंट को पता चला तो उसने कुछ पैसे भेज दिए। अगले दिन तुलू की तस्वीर फेसबुक पर डालकर लिखा, 'जब कोई सफाई कर्मचारी कोरोना वार्ड की सफाई करने को तैयार न हुआ तो तुलू आगे आया। मेरा सलाम है इस हीरो को।'
पोस्ट वायरल हो गयी। लोग पोस्ट पर 'जय हिन्द' लिखने लगे। चीफ मेडिकल ऑफिसर ने भी पोस्ट पढ़ा और सफाई कर्मचारियों के नाम पते वाला रजिस्टर निकाला। उसमें तुलू का नाम कहीं नहीं था।
'अरे ये सफाई कर्मचारी पर्मनेंट नहीं है क्या?' सीएमओ ने फोन लगाकर पूछा।
'नहीं सर पाँच साल से ऐसे ही काम कर रहा है। निकालिएगा नहीं सर। बहुत मेहनती है। मैं फेसबुक का पोस्ट हटा देती हूँ। माफी मांगती हूँ।' - 20 साल के करियर में सुप्रिटेंडेंट पहली बार किसी के सामने गिड़गिड़ायी होगी।
'अरे निकाल कौन रहा है? मैं तो इसे पर्मनेंट करने के लिए सिफारिश भेजने की बात कर रहा था। और सुनो पिछ्ले दिनों कोरोना वार्ड में काम करने के लिए दिन के 1000 रुपये उसके खाते में डलवा रहा हूँ। उसे बता देना।'
21 दिनों का क्वारंटीन पूरा कर जब तुलू अपने गाँव पहुँचा, तो बिप्लप दा दौड़ दौड़कर ये अच्छी खबर सुनाने पहुँच गये।
'पर्मनेंट कर देंगे... देखा मैं न कहता था?'
"क्या मैं...मैं पर्मनेंट सफाई कर्मचारी बन जाऊंगा???"
तुलू की आँखों में आंसू थे। उसका बेटा पास बैठा कागज़ पर 1, 2, 3 लिख रहा था। बिप्लप बोला 'बहुत हुशार है तेरा लड़का, देखना इंजीनियर बनेगा'।
पर तुलू का ध्यान कहीं और ही था...वो पर्मनेंट सफाई कर्मचारी बनने के सपनों में खोया हुआ था।
नोट - सच्ची घटना पर आधारित पर कहानी में नाटकीय परिवर्तन किये गये हैं।
No comments:
Post a Comment