मिष्टी के पेट मे आते ही मैंने नौकरी छोड़ दी थी। कहते है बच्चे को सर्दियों में रोज़ धूप दिखानी चाहिए। इसलिए मैं रोज़ उसे ले जाकर धूप में बैठती थी।
एक ड्यूटी सी थी...मन हो या ना हो...धूप में जाकर बैठो...
पर बैठने के बाद अच्छा भी लगता था। राजस्थान में थे हम उस वक़्त। सर्दी जानलेवा थी वहां की भी दिल्ली की सर्दी की तरह ही।
फिर मिष्टी बड़ी हुई...और अपने आप धूप में जाने लगी।
यहाँ मेरे घर में दरवाज़े-नुमा खिड़कियाँ है...बड़ी-बड़ी...
यहीं से धूप दिखाई देती है। चटकदार...जो सारी सर्दी हज़म कर सकती हो...
पर पिछले कुछ सालों में बहुत कुछ बदल गया...
मैंने फ़िर नौकरी कर ली है। पहले शौकिया लिखती थी। फिर तनख्वाह लेकर लिखने लगी। अब और तरक्की हो गयी है...एडिटर बन गयी हूँ।
9 बजे से ड्यूटी शुरू होती है। टाइटल बताते-बताते, वीडियो देखते-देखते, स्क्रिप्ट लिखते-लिखते और आर्टिकल एडिट करते-करते लगातार खिड़की से धूप दिखाई देती है।
मुश्किल से कुछ कदमों की मेरे और धूप के बीच की ये दूरी शाम तक तय नही हो पाती...
एक आर्टिकल के बाद...इस वीडियो के बाद...मेल का जवाब दे लूँ...स्टोरी के लिए फोन कर लूँ...
मेरे एडिटरी से फ्री होते-होते...धूप चली जाती है...
मेरी तरक्की हो गयी है।
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