"पत्रकारिता" माने सच्चाई को लोगो तक पहुचाना और अच्छाई के लिये सच्चाई को लोगो तक पहुँचाना।
हाँ मेरी ये धरना गलत भी हो सकती है।
क्योंकि आजकल पत्रकारिता के मायने सच्चाई को नाटकीय रूप से लोगो तक पहुँचाना बन गया है।
सच्चाई को अच्छाई के लिए कम और अपने चैनल या पत्रिका/अखबार की भलाई (टी आर पी) के लिए ज़्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसका जीता जागता उदाहरण ओरिसा के उस इंसान का वो वायरल होता वीडियो है जिसमे उसे अपनी मृत पत्नी को उठाकर चलते हुए दिखाया जा रहा है।
उसके गाँव से हज़ारो किमी दूर गाडी में एरॉन से एफ एम् सुनते हुए लोग जब ट्रैफिक में रुकते है तो औपचारिकतावश एक कमेंट दाल ही जाते है।
हर कोई प्रशासन को कोस रहा है। अस्पताल को दोषी ठहरा रहा है, देश को शर्म से डूब मरने की सलाह दे रहा है।
पर एक पत्रकार होने के नाते सबसे पहला प्रश्न जो इस वीडियो को देखकर मुझे कचोटता है वो ये है कि जो इस वीडियो को ले रहा था वो मानव था या हैवान?
वो पत्रकार वहां कैसे पहुंचा? पैदल???
अगर नहीं... तो तुरंत उसने अपनी गाडी उस व्यक्ति को क्यों नहीं दी? और अगर उसने गाडी दी तो फिर ये व्यक्ति अपनी पत्नी के शव को दुबारा उठाकर क्यों चल रहा है???
जवाब आप भी जान गए होंगे अब तक!
देश में अब तक ऐसे कई हिस्से है जहाँ गाडी तो दूर हमारी ये खोखली सहानुभूतियाँ तक नहीं पहुँचती। पर सुविधाये इन तक हमारे आपके शर्म से डूब मरने से नहीं बल्कि एक जुट होकर हल निकालने से पहुचेंगी। और इसके लिए अब इन पत्रकारो को शर्म करनी होगी... केवल सनसनी नहीं खबर पहुचानी होगी।
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