कुछ रोज़ पहले कॉलेज के व्हाट्स अप ग्रुप पर चर्चा हो रही थी। हमारे एक दोस्त काम के सिलसिले में विदेश जा रहे थे। कुछ 6 महीने की बात थी तो परिवार को अपने साथ ले जाना मुमकिन नहीं था।
सभी दोस्त उनकी तरक्की पर खुश हुए। बधंईयां दी। पर फिर वे कुछ इमोशनल से हो गए। बोले, बेटा सिर्फ 6 माह का है, खूब खेलता है, नयी नयी चीज़े करने लगा है, बहुत याद आएगा... शायद जब तक मैं वापस आऊंगा, मुझे भूल चूका होगा। हम सबने सांत्वना दी कि ऐसा नहीं होता। और आखिर तुम उसके भविष्य के लिए ही तो बाहर जा रहे हो।
वे कुछ शांत हुए। पर हर माँ बाप उनकी उलझन समझ सकता होगा। पिता ऐसे ही होते है। कहते नहीं कि उन्हें पास रहकर अपने बच्चे को बड़ा होता देखना है, उसे संभालना है, उसे कहानियां सुनानी है, रोये तो उसे हँसाना है या फिर घंटो उसे गोदी में लिए खेलना है। वो अपने बच्चे के भविष्य के लिए इन सारे सुनहरे पलो को छोड़कर बाहर मेहनत करने के लिए निकल पड़ता है।
इसके लिए बाहर तो उसकी वाहवाही होती है कि कितना काबिल पिता है। पर कई दफा घर के लोग ही उसे ये कहकर नकारा बाप साबित करने पे तुले होते है कि इसे तो इस वक़्त अपने बीवी बच्चों के पास होना चाहिए था।
पिता इन सब लांछनों को सुनकर भी अनसुना करके बस अपना काम करता रहता है। वो इस हकीकत को जानता है कि जिस ऐशो आराम के ख्वाब वो अपने बीवी बच्चों के लिए देख रहा है, वो उनके पास रहकर कभी नहीं दिला सकता। उसके लिए उसे अपना मन मारकर उनसे दूर जाना ही होगा।
सोचिये अगर एक छोटे से घर को चला रहे हमारे पिता से हम इस बात की अपेक्षा रखते है कि वो घर पर बैठा बस हमारे रोने पर हमे चुप न कराता रहे बल्की बहार जाकर उस खाने का इंतज़ाम करे जो हमे भूख लगने पर खिला सके या उस खिलौने का इंतज़ाम कर सके जो हमारे रोने पर हमे दे सके तो हम देश के प्रधानमंत्री से ऐसी आशा क्यों रखते है?
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