इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है,
और पहनकर बाजार में बिकने निकल पड़ते है।
कोई मुस्कान खरीदता है
कोई मासूमियत
कोई झूठी पहचान खरीदता है,
कोई खोखली नियत
कोई हंसने के दाम देता है
कोई चलते रहने का इनाम
कोई अच्छी बाते खरीद लेता है
तो कोई झूठी शान...
इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है!
मुखौटा खुलते ही खरीददार रूठ से जाते है,
मुस्कान, बाते, नियत, शान सब लौटाने आते है,
असली चेहरा इक बार फिर बाजार में बेच नहीं पाते है..
और अगली सुबह फिर वही मुखौटा पहन हम बाजार में बेच आते है...
इक मुखौटा सा है जो हम पहनते है!
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी
ReplyDeleteचेहरे की हकीकत को समझ जाओ तो अच्छा है
तन्हाई के आलम में ये अक्सर बदल जाता है ...
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