दसवी में जब हमें पछत्तर पर्सेंट मिले
तो माँ बाबा के उम्मीदों के कई दीप जले।
हमारी रूचि को तब मिट्टी में मिलाया गया
और हमे साइंस में एडमिशन दिलाया गया।
माँ बाबा की खातिर हम भी खूब पढ़े
और बारवी से भी किसी तरह निकल पड़े।
सोचा ...चलो अब साइंस से पीछा छुटा
आराम से अब साहित्य का मज़ा जाए लूटा।
पर बाबा को मुझे इंजीनियर बनाना था
अच्छा वर पाने के लिए डिग्री जो लाना था।
इंजीनियरिंग में घुसते ही हमारी कविताओ का सारा रस निकल गया,
धरती माँ - प्लानेट और चंदा मामा - सॅटॅलाइट में बदल गया।
वर्कशॉप मशीनों का मेला था
पर हर शख्स अपनी मशीन के साथ यहाँ अकेला था।
आर ए एम् राम नहीं रैम बन गया
ये सुनके तो हमारा भक्ति भाव ही खो गया।
जब इन सबके बावजूद हम साहित्य प्रेमी बने रहे
तो इतने असाइनमेंट्स और ट्यूटोरियल दिए गए
कि हम दुसरो की क्या...अपनी भी कविता भूल गए।
हाँ हम अपनी भी कविता भूल गए :D
सब की यही कहानी हैं :)
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया विभा जी। ज़रूर आएंगे :)
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