Sunday, October 12, 2025

संसार बसाना और संसार चलाना

मुझे याद है, गलेरिया मार्केट की वो दुकान। हम पहली बार घर का सामान ले रहे थे। झाड़ू, डस्ट-पैन, सिरका, चिमटा... सब!!
एक अलग ही मज़ा आ रहा था... अपना नया नया संसार बसाने का उत्साह...
और फिर .. ये हर महीने का काम बन गया...
शादी धीरे-धीरे एक काम बन जाती है। संसार बसाने में जो उत्साह होता है... वो संसार चलाने में खत्म हो जाता है। 
कहीं भगवान के साथ भी तो ऐसा ही नहीं हुआ? इतनी सुंदर दुनिया बनाई, इतना सुंदर सजाया... पर अब शायद उसे चलाते चलाते ऊब गए हैं!

No comments:

Post a Comment