चंद्रपुर! मेरा शहर.. मैंने कभी चंद्रपुर का नाम खबरों में नहीं सुना। खबरे जिनमे अक्सर खून, बलात्कार, धोखाधड़ी और लूटमार के लिये ही जगह होती है, उनमे चंद्रपुर के लिए कोई जगह नहीं थी। सो हम बेफिक्र रहे...हमेशा... सारा चंद्रपुर घर जैसा लगता। उतना ही सुरक्षित जितना घर होता है। सारे लोग उतने ही अपने और नेक जितने घर के लोग होते है।
जब शादी के बाद गुडगाँव में रहने लगी तो माँ हमेशा डरती थी क्योंकि उन्होंने गुडगाँव का नाम अक्सर खबरों में सुना था। सच कहू तो थोडा थोडा डर तो मुझे भी लगता था। चंद्रपुर में रास्ते पर चलते हुए कभी नहीं सोचा की शायद कोई पीछे है जो पर्स छीन लेगा या ज़बरदस्ती मुह बंद करके उठा ले जायेगा। पर कभी गुडगाँव में ऑफिस से आने में देरी हो जाती तो लगता जैसे भेड़िये पीछा कर रहे हो।
इसके बाद भिवाड़ी और नॉएडा जैसे crime capitals में भी रही। इन खबरों में छाए रहने वाले शेहरो से जब भी चंद्रपुर लौटती तो एक सुकून सा मिलता। ऐसा लगता जैसे किसी गटर से निकल कर गंगा किनारे आ गयी हूँ। और गंगा का किनारा तो मैला हो ही नहीं सकता।
पर 32 सालो तक जिन जगहों पर नहीं गयी थी। इस साल उन जगहों के बारे में लिखने की उत्सुकता मुझे वहा ले गयी। इसी सन्दर्भ में अपने इस सुरक्षित शहर के एक अनाथ आश्रम में जाना हुआ। वहा की संचालिका को आने में वक़्त था तो वहा के बच्चों के साथ खेलने लगी। सारी लड़कियां थी। हँसती खेलती बिलकुल भोली भाली लडकियां। छोटा सा खेल था पर उनके ठहाकों की गूंज से लग रहा था मानो उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो।
मैंने सबका नाम पूछा। सबसे हाथ मिलाया। और ढेर सारी हंसी लेकर संचालिका से मिलने गयी।
संचालिका ने सब बच्चों के बारे में बताया। ये भी बताया की कौनसी लडकिया दत्तक दी जा सकती है। जिन प्यारी सी बच्चियो के साथ मैं अभी अभी खिलखिलाकर आई थी, पता चला उनमे से सबसे प्यारी बच्ची दत्तक नहीं दी जा सकती। कारण पूछने पर पता चला की उसके माँ बाप है। बात समझ ही नहीं आई की माँ बाप के रहते हुए 3 साल की दिव्या (नाम बदला हुआ) अनाथ आश्रम में क्या कर रही है?
"उसका बलत्कार हुआ है"
संचालिका के ये शब्द मानो किसी तीर की तरह मुझे चुभे...एक ऐसा तीर जिसके चुभने से मैं अपने शहर के प्रति भरोसे के जिस आसमान पर बैठी थी वहा से सीधा धरती पे आ गिरी!!!
दिव्या का पिता शराबी है और माँ मनोरोगी । दोनों ही भीख मांगकर गुज़ारा करते है और सड़क पर ही सोते है। ऐसे में इस बात की कोई गरंटी नहीं है की दुबारा इस लड़की के साथ ऐसा नहीं होगा। इसलिए पुलिस उसे यहाँ छोड़ गयी थी।
मैं दिव्या से दुबारा मिली...कई बार मिली... वह वैसी ही निष्पाप थी...उतनी ही प्यारी और भोली... पर मैं अचानक बदल गयी। मेरा शहर मेरे लिए हमेशा के लिए बदल गया।
अगले दिन मुझे एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सोन्डो जाना था। जिस शहर में मैं 32 साल तक अकेले बिना डरे घूमती रही उसी शहर से टैक्सी में अकेले जाने में मुझे खौफ सा आया।
दिव्या से आखरी बार मिलकर घर वापस जाते हुए रास्ते से गुज़र रहा मेरे शहर का हर शख्स अपराधी सा लगा.....
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